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ग़ज़ल – द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी (अभिनव अरुण)

ग़ज़ल –
फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन
२१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२

द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी |
आज या कल के उस दौर में मैं कहाँ कब संभाली गयी |

सब्र तक मुझको मोहलत मिली कब कली अपनी मर्ज़ी खिली ,
एक सिक्का निकाला गया मेरी इज्ज़त उछाली गयी |

लड़का लूला या लंगड़ा हुआ गूंगा बहरा या काला हुआ ,
मुझसे पूछा बताया नहीं सबको मैं ही दिखा ली गयी |

दौर कैसा अजब आ गया एक सबको नशा छा गया ,
सब हैं पैसे के पीछे गए सबकी होली दिवाली गयी |

है न चौकी पुलिस की जहां चाय पीते रहे तुम वहाँ ,
एक काली सफारी रुकी एक लड़की उठा ली गयी |

दिन में जो थी बरामद हुई रात भर थाने में वो रही ,
रात भर जांच उसकी हुई तुमने सोचा बचा ली गयी |

चार कसमों की बाते हुईं चार वादों की रातें हुई ,
चार तोह्फ़े दिखाए गए इस तरह वो मना ली गयी |

बाप की सांस टूटी ही थी माँ को बंधक बनाया गया ,
फिर अंगूठा लगाया गया फिर वसीयत बना ली गयी |

अपने सारे पराये हुए लोग भाड़े के लाये हुए ,
मौत तनहाइयों में हुई और रोने रुदाली गयी |


* मौलिक एवं अप्रकाशित

- अभिनव अरुण

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Comment by Abhinav Arun on June 13, 2014 at 11:15am
आदरणीया अन्नपूर्णा जी एवं आदरणीया मीना जी रचना के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार आपका , अभिवादन , सादर !!
Comment by Meena Pathak on June 12, 2014 at 9:54pm

आज के समाज का चेहरा आपने अपनी रचना के माध्यम से उजागर किया ... बेहतरीन गजल हुई .. बहुत बहुत बधाई 

Comment by annapurna bajpai on June 12, 2014 at 7:35pm

समाज के विकृत रूप को उजागर किया है आपने आ0 अभिनव अरुण जी । शानदार गजल हेतु बधाई स्वीकरें । 

Comment by Abhinav Arun on June 12, 2014 at 6:40pm
आदरणीया राजेश कुमारी जी , आदरणीय श्री लक्ष्मण धामी जी एवं आदरणीय श्री गिरिराज भंडारी जी आभार आप सबका मेरा लेखकीय उत्साह बढाने के लिए बेहतर की कोशिश जारी रहेगी !!

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 12, 2014 at 6:05pm

आदरणीय अभिनव भाई , महिलाओं की स्थिति पर बहुत खूबसूरत गज़ल कही है , बधाइयाँ ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 11:02am

आदरणीय भाई  अभिनव अरुण जी महिलाओं की स्थिति पर बहुत ही सशक्त ग़ज़ल कही l इस समसामयिक ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई l


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Comment by rajesh kumari on June 12, 2014 at 10:00am

रोंगटे खड़े हो गए इस ग़ज़ल को पढ़ कर ,समाज के घ्रणित मानसिकता वालों का चेहरा दिखाती हुई सामयिक ग़ज़ल लिखी है आपने| ,कैसी विडम्बना है या दुर्भाग्य कहिये कि हमारे देश में ऐसे अशआर बनाने पड़ रहे हैं दिली दाद कबूलें  अभिनव अरुण जी|   

Comment by Abhinav Arun on June 12, 2014 at 9:48am
हार्दिक आभार आदरणीय श्री डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , आपके शब्द मेरे संबल हैं , आगे और बेहतर कहने का प्रयास होगा !
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2014 at 7:37pm

अभिनव अरुण जी

आपकी गजल में लघु कथा छिपी हुयी है  और जैसा मार्मिक व्यंग लघु कथा में होता हा उस्सेभी मार्मिक इस गजल में है क्योंकि कविता या गजल की संप्रेषणीयता  सदैव अधिक होती है i बहुत सुन्दर i

Comment by Abhinav Arun on June 11, 2014 at 5:43pm
आदरणीय श्री जितेन्द्र गीत जी एवं श्री नरेन्द्र सिंह चौहान जी प्रोत्साहन का शुक्रिया !

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