2122 2122 2122 2122
ज़ुल्फ़ जब उसने बिखेरी बज़्मे-ख़ासो-आम में
फ़र्क़ बेहद कम रहा उस वक़्त सुब्हो-शाम में
झाँककर परदे से उसने इक नज़र क्या देख ली
जी नहीं लगता हमारा अब किसी भी काम में
सिर्फ़ ख़ाकी, खादी पर उठती रही हैं उंगलियाँ
मुझको तो नंगे नज़र आये हैं सब हम्माम में
मान-मर्यादा, ज़रो-ज़न, इज्ज़तो, ग़ैरत तमाम
क्या नहीं गिरवी पड़ी है ख्व़ाहिशे-ईनाम में
एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप
कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में
हैफ़ ‘साहिल’ तू ने भी तोड़ा भरोसे का भरम
बिक गईं ख़ुद्दारियाँ तेरी भी सस्ते दाम में
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत ही सुन्दर गज़ल। बधाई, आदरणीय सुशील जी।
मतले से शुरु हुआ अंदाज़ आगे एकदम से रंग बदल जाता है. बहुत खूब भाईजी.
एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप
कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में........... यह शेर अच्छा हुआ है.
दाद कुबूल करें.
बहुत शानदार अशआर हुए हैं आ० सुशिल ठाकुर जी
एक और जहां मतले की मुलायमियत नें बाँध लिया ..वही परदे वाले शेर भी बहुत पसंद आया
और खाकी और मुफलिसों वाले शेर का अंदाज़ भी बेमिसाल लगा ..बहुत खूब
हर शेर पर अलग अलग बधाई क़ुबूल कीजिये
एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप
कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में---वाह्ह्ह्हह ,सभी अशआर लाजबाब हुए आ० सुशील जी बेहतरीन ग़ज़ल ...आपकी ग़ज़ल की बहर में अंत में २१२ होना चाहिए
दिली दाद कबूलें |
वाह लाजवाब ,.. हर शेर अपने आप में जबरदस्त है बधाई आपको
लाज़वाब..उम्दा..बेहतरीन .. बधाई बधाई बधाई
बहुत खूब , वाह !!! क्या कहने सुंदर गजल हेतु बधाई ।
आदरणीय सुशील भाई , बहुत खूब सूरत ग़ज़ल कही है , दिली बधाई स्वीकार करें ।
हैफ़ ‘साहिल’ तू ने भी तोड़ा भरोसे का भरम
बिक गईं ख़ुद्दारियाँ तेरी भी सस्ते दाम में ------ लाजवाब ! बधाइयाँ ॥
ज़ुल्फ़ जब उसने बिखेरी बज़्मे-ख़ासो-आम में
फ़र्क़ बेहद कम रहा उस वक़्त सुब्हो-शाम में..... क्या कहने
झाँककर परदे से उसने इक नज़र क्या देख ली
जी नहीं लगता हमारा अब किसी भी काम में... दीवानगी का खूब बयां हुआ
मान-मर्यादा, ज़रो-ज़न, इज्ज़तो, ग़ैरत तमाम
क्या नहीं गिरवी पड़ी है ख्व़ाहिशे-ईनाम में.....कटु सत्य
एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप
कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में......बिलकुल सही कहा सियासतदानों के लिए
बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई आ० भाई साहिल जी l
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online