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पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
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जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
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रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है
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सिर्फ दौलत को यहाँ पर रोज भगदड़ है मची
प्यार की खातिर मनों को छानता अब कौन है
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सबको मंजिल की ‘मुसाफिर’ है तलब तो खूब पर
पाक राहें भी रहें ये ठानता अब कौन है
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(रचना- 25 मई 2012)
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आदरणीय भाई गिरिराज जी आपसे प्रशंसा पाकर लग रहा है कि गजल लेखन की राह पर ठीक ठाक चल पा रहा हूं । आप सभी का स्नेह इसी प्रकार मिलता रहे यही अभिलाषा है । धन्यवाद ।
आदरणीय भाई जितेन्द्र जी , यह आप सब का स्नेह ही है जिसकी वजह से गजल सुंदर बन पड़ी है । उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई शिज्जू जी , गजल की प्रशंसा कर उत्साह वर्धन के लिए दिली धन्यवाद ।
आदरणीय कुंती दी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आ0 गीतिका जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीया राजेश बहन, गजल की प्रशंसा के लिए आभार । आपका स्नेहाशीष मिलता रहे यही कामना है । धन्यवाद ।
आदरणीय भाई अभिनव अरूण जी इस गजल का श्रेय आप सब के प्रेम और आशीष को ही जाता है । प्रशंसा के लिए दिली बधाई स्वीकारें ।
आदरणीय भाई गोपाल नारायण जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई विजय शंकर जी , गजल का अनुमोदन कर उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
वाह आदरणीय लक्ष्मण जी क्या खूब कहा ...बेहद उम्दा बात कही
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