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जोड़ना आता नहीं पर बाँटनें की फितरतें -ग़ज़ल

2122    2122    2122    212
******************************
पाँव  छूना  रीत  रश्में  मानता  अब  कौन  है
सर पे आशीषों  की छतरी तानता  अब कौन है
***
जोड़ना  आता  नहीं पर ,  बाँटनें   की  फितरतें
धर्म हो  या  हो सियासत  जानता अब  कौन है
***
रो रहे क्यों वाक्य को तुम  मानने की जिद लिए
शब्द  भर  बातें  सयानों  मानता  अब  कौन है
***
सिर्फ दौलत  को यहाँ  पर रोज  भगदड़ है मची
प्यार की  खातिर  मनों को  छानता अब कौन है
***
सबको मंजिल की ‘मुसाफिर’ है तलब तो खूब पर
पाक  राहें   भी   रहें   ये   ठानता   अब  कौन  है

***
(रचना- 25 मई 2012)

मौलिक और अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

Views: 711

Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on June 23, 2014 at 6:05pm
बहुत ही सुन्दर आ o लक्ष्मण धामी जी ,
जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
बधाइयां ।

कृपया ध्यान दे...

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