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पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
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जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
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रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है
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सिर्फ दौलत को यहाँ पर रोज भगदड़ है मची
प्यार की खातिर मनों को छानता अब कौन है
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सबको मंजिल की ‘मुसाफिर’ है तलब तो खूब पर
पाक राहें भी रहें ये ठानता अब कौन है
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(रचना- 25 मई 2012)
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
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