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कहीं अब झाँकती है रोशनी भी
कहीं बदली लगी थोड़ी हटी भी
शजर अब छाँव देने लग गये हैं
फ़िज़ा में गूंजती है अब हँसी भी
निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं
अभी है रस्सियों में जाँ बची भी
जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर
नई चाहत कोई दिल में पली भी
मिलेंगी शाह राहों से ये गलियाँ
गली से रिस रही है ये खुशी भी
मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं
नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी
ये कैसा वक़्त है, क्या नाम दूँ मै
ख़ुदी भी है सलामत , बेख़ुदी भी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
ये कैसा वक़्त है, क्या नाम दूँ मै
ख़ुदी भी है सलामत , बेख़ुदी भी..............वाह! क्या बात है गजब गजब
बहुत ही बेहतरीन गजल आदरणीय गिरिराज जी, तहे दिल से बधाई स्वीकारें
आदरणीय बड़े भाई विजय भाई , उत्साह वर्धन और सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
मित्र
एक और सुन्दर गजल पर बधायी i क्या उम्दा है आख़िरी शेर i
आदरणीया कुंती जी , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय विजय शंकर भाई , ग़ज़ल पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय अभिनव अरुण भाई , ग़ज़ल को आपकी सराहना मिलना मेरे लिये बहुत खुशी का कारण है , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं
नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी....क्या बात है.
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