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मुझे वो याद करते हैं जो भूले थे कभी मुझको,
बस ऐसे ही जहां भर की मिली है दोस्ती मुझको.   
.

ज़माना ज़ह्र  में डूबे हुए नश्तर चुभोता है,
बचाती ज़ह्र  से लेकिन मेरी ये मयकशी मुझको.    
.

मुझे कहने लगा ख़ंजर, “मुहब्बत है मुझे तुमसे,
कि इक दिन मार डालेगी तुम्हारी सादगी मुझको.” 
.

ज़माने का जो मुजरिम है सज़ाए मौत पाता है,
मिली मेरे गुनाहों पर सज़ाए ज़िन्दगी मुझको.
.

ख़ुदाया शह्र -ए-पत्थर में बना मुझ को तू आईना,
समझनी है अभी इन पत्थरों की बेबसी मुझको. 
.

बहुत नज़दीक के रिश्ते, बहुत तकलीफ़ देते हैं,
गुज़ारिश है फ़क़त इतनी, बना लो अजनबी मुझको.
.

बिखर जाऊं जहां में “नूर” बनके है यही ख्वाहिश,
मेरे मौला अता कर बरक़तों की रौशनी मुझको.
.
निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 30, 2014 at 6:10pm

शुक्रिया शिज्जू जी ..
कोशिश जारी है ...धन्यवाद 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 30, 2014 at 6:09pm

धन्यवाद आ. डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहब 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 30, 2014 at 3:16pm

आदरणीय निलेश भाई लाजवाब अशआर से सुसज्जित इस ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 30, 2014 at 12:29pm

नूर भाई

बहुत अद्भुत i एक से बढ़कर एक शेर और मक्ता क्या कहने ? सुभान अल्लाह i 

कृपया ध्यान दे...

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