हमें वो वेवफा कह कर बुलाते है सितम देखो
चुरा कर नीद रातो की सताते है सितम देखो
कभी मै देखता भी तो नहीं था जाम के प्याले
कसम दे कर मुझे अपनी पिलाते है सितम देखो
बडे अरमान से जिसने बनाया आशिया मेरा
वही उस आशिये को अब जलाते है सितम देखो
न रूठे वो कभी हमसे हमारे साथ चलते थे
मगर अब साथ गैरो का निभाते है सितम देखो
खुले जो लब कभी जिनके हमारा नाम ही निकले
न जाने क्यो वही हमको भुलाते है सितम देखो
मौलिक व अप्रकाशित अखंड गहमरी
Comment
आदरणीय अखंड भाई , गज़ल खूब सूरत कही है , बधाइयाँ ॥ आ. शिज्जु भाई , निलेश भाई की बातें का खयाल करें ॥
वाह्ह्ह... बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है अखंड जी मजा आ गया पढ़ के ,आ० नीलेश जी का सुझाव सही है ,वहीँ पर मैं भी अटकी हूँ आशियाना होता है आशिया नहीं. आप इस शेर को यूँ कह सकते हैं ----बडे अरमान से जिसने बनाया आशियाना था
वही उस आशियाने को जलाते है सितम देखो| ---एक बात और ---उला में जिसने आ रहा है तो जलाते आने से दोष पैदा हो रहा है या तो जलाता आता किन्तु वो काफिये में नहीं आ सकता इसलिए आपको जिसने को ही चेंज करना पड़ेगा ----जैसे कर सकते हैं --बडे अरमान से दिल से बनाया आशियाना था ----- फिलहाल ढेरों बधाई आपको |
आदरणीय अखंड जी, बहुत सुंदर गजल प्रस्तुति.दिली बधाई आपको
ग़ज़ल अच्छी लगी, आदरणीयभाई निलेश जी ने बढ़िया सुझाव दिया है, बधाई स्वीकार करें।
बहुत खूब ग़ज़ल के लिए बधाई ..
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वही उस आशिये को अब जलाते है सितम देखो... इस आशिए में थोड़ी उलझन है
वही उस आशियाने को जलाते है सितम देखो... ऐसा बेहतर होगा शायद
सादर
आदरणीय अखंड भाई मेहनत आपकी रचनाओं में नज़र आ रही है बहुत बहुत बधाई
एक बात और जाम और प्याला समानार्थी शब्द हैं।
गहमरी जी
अति सुन्दर i बेहतरीन i
आ० भाई गहमरी जी , ग़ज़ल अच्छी हुई इसके लिए हार्दिक बधाई कबूलें l दूसरे शेर में संभवत्यः कसम की जगह कमस हो गया है इसे दुरस्त कर लें l शुभ -शुभ ....
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