मुझको तो गुज़रा ज़माना चाहिए।
फिर वही बचपन सुहाना चाहिए।
जिस जगह उनसे मिली पहली दफा,
उस गली का वो मुहाना चाहिए।
तैरती हों दुम हिलातीं मछलियाँ,
वो पुनः पोखर पुराना चाहिए।
चुभ रही आबोहवा शहरी बहुत,
गाँव में इक आशियाना चाहिए।
भीड़ कोलाहल भरा ये कारवाँ,
छोड़ जाने का बहाना चाहिए।
सागरों की रेत से अब जी भरा,
घाट-पनघट, खिलखिलाना चाहिए।
घुट रहा दम बंद पिंजड़ों में खुदा,
व्योम में उड़ता तराना चाहिए।
थम न जाए लेखनी यह ‘कल्पना’
गीत गज़लों का खज़ाना चाहिए।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
प्रिय प्राची जी, उत्साहवर्धक शब्दों के लिए सादर धन्यवाद
आपकी मनोबल बढ़ाती हुई सुंदर टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी
अपनी सुकोमल चाहतों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं
हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना जी
एक भरपूर, आबाद और सशक्त ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पनाजी.
सादर
सभी आदरणीय मित्रों की प्रोत्साहित करती हुई सुंदर टिप्पणियाँ पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई, आप सबका स्नेह ही मेरा संबल है। आप सबका सादर आभार।
बहुत खूब कल्पना जी।
बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
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