एक बाजू गर्वीला पर्वत
अपनी ऊँचाई और धवलता पर इतराता
क्यूँ देखेगा मेरी ओर?
गर्दन झुकाना तो उसकी तौहीन है न!
दूजी बाजू छिः !! यह तुच्छ बदसूरत बदरंग शिलाखंड
मैं क्यूँ देखूँ इसकी ओर
कितना छोटा है ये
इसकी मेरी क्या बराबरी
समक्ष,परोक्ष ये ईर्ष्यालू भीड़ ,उफ्फ!!
जब सबकी अपनी-अपनी अहम् की लड़ाई
और मध्य में वर्गीकरण की खाई
फिर क्यूँ शिकायत
अकेलेपन से!!
अपने दायरे में
संतुष्ट क्यों नहीं ?
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
महनीया
यह अहम जीने नहीं देता i कामायनी में मनु भी इसी रोग के शिकार दीखते है i
'मै हूँ ' यह वरदान सदृश क्यों लगा गूंजने कानो में i
मै भी कहने लगा मै रहूँ शाश्वत नभ के गानों में ii
बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आदरणीया i
सच! इंसान का अहम उसे कहाँ ले जाकर छोड़ता है. न पाने को कुछ रह पाता ,न खोने को. संतुष्टि तो मानो कोसों दूर रह जाती है.
बहुत ही सुंदर शब्दों में एक कटु सत्य को बयां करती कविता, शायद मैंने आपकी पहली अतुकांत पढ़ी है, बहुत अच्छी लगी, हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया राजेश दीदी
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