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तीन विशेष कुण्डलिया // --सौरभ

1.
खर्चा-आमद एक सा, क्या नफरत क्या प्यार
छाना-फूँका पी लिया, फिर चिंता क्या यार
फिर चिंता क्या यार, गजब हूँ धुन का पक्का
रह-रह चढ़े तरंग, जगत भी हक्का-बक्का
रहता मस्त-मलंग, फाड़ता रह-रह पर्चा
और खुले ये हाथ, यहीं हर आमद-खर्चा

 

2.
जग तो बड़ा सुजान है, लेकिन हम हतभाग्य
फिर भी मन संयत रहा, यही तनिक सौभाग्य
यही तनिक सौभाग्य, बीतता देखा हर पल
मिलजुल पल दें सीख, वही फिर मन के संबल
नहीं किसी से बैर, नहीं मन भारी, डगमग
किससे करें सवाल, पता जब है कैसा जग !
 

3.
कैसी जग की रीति अब, कैसा जग-व्यवहार
लोंदे के आदेश पर चढ़ता चाक कुम्हार
चढ़ता चाक कुम्हार, उलट क्या बहती गंगा
जिसके ईश कुबेर, उसे ही देखा नंगा
चूहा करता ऐंठ, सिंह की ऐसी-तैसी
तप का फल दुत्कार, ज़िन्दग़ी पायी कैसी !!
*************
-सौरभ
*************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2014 at 11:25am

सही कहा आदरणीय अरुण भाईजी आपने.

ऐसी टिप्पणियों से अन्य पाठकों ध्यान रचना से इतर अनाश्यक की बहस में उलझ जाता है जो रचना के अलावा अन्य कुछ जानना नहीं चाहते. जैसा कि आदरणीय सुरेंद्र भाई जी के साथ हुआ. देखिये न, आदरणीय सुरेंद्र भाई तो अक्सर तुकान्त रचनायें लिखते भी नहीं. फिर, अनावश्यक तथ्य अलग से उभरते हैं जो प्रस्तुति के पटल का भाग तक नहीं होते. लेकिन ये सब भी ’सीखने-सिखाने’ के अंतर्गत आते हैं, और, हम सभी समवेत सीख रहे हैं, टिप्पणी करना भी, मैं यही मान लिया करता हूँ. इसी कारण मैंने लिंक भी दे दिया है.

बहुत पहले मेरी एक और रचना पर ऐसी अतुकान्त बहस चल चुकी है जिसका प्रस्तुत रचना से कोई लेना-देना नहीं था. उसकी चर्चा कई माह पूर्व आदरणीय बृजेश भाई से भी कर चुका हूँ.  आदरणीय बृजेश भाई मेरे अनन्य हैं.

आपने तथ्य को अच्छे ढंग से रखा, हार्दिक धन्यवाद.

शुभ-शुभ

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 22, 2014 at 11:14am

निःसंदेह इस तरह की टिप्पणियाँ नहीं होनी चाहियें.

Comment by बृजेश नीरज on July 21, 2014 at 9:37pm

दुखद!

एक सीधे प्रश्न के उत्तर में इस तरह की आरोपित करने वाली टिप्पणी? क्या यही ‘सीखने-सिखाने’ की परम्परा है? इस मंच के वरिष्ठ जनों का मौन आश्चर्यचकित करता है!

इस मंच से बहुत कुछ सीखने को मिला, बहुत स्नेह प्राप्त हुआ, उस सबके लिए हार्दिक आभार!

इस मंच और वरिष्ठों को नमन, सभी सदस्यों को प्रणाम!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 20, 2014 at 3:42pm

आदरणीय सुरेन्द्र भ्रमर जी,  आपका सादर स्वागत है.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 20, 2014 at 3:27pm

आदरणीय बृजेश भाईजी, अपनी रचना पर आपकी इस टिप्पणी को मैं आज देख पाया, इस हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ. यह मेरी विवशता भी है कि समय पर रचनाओं पर नहीं आ पाता या आ पारहा हूँ.

नवगीत ही नहीं किसी विधा की रचनाओं के प्रति यह मंच एक तरह का भाव रखता है. और इस कारण मेरे जैसे विद्यार्थी रचनाकर्म के क्रम में उत्तरोत्तर विकास और समझ की बातें करते हैं.  

जहाँ तुकान्तता का प्रश्न है तो आपको, आदरणीय, समझ में आ गया होगा कि क्यों मैंने अपनी ही रचना के परिप्रेक्ष्य में आदरणीय गिरिराजभाईजी से ऐसा निवेदन किया था ?

यदि हाँ, तो काश आपने उसे साझा किया होता.

तुकान्तता पर भारतीय विधान समूह में एक पोस्ट है.
http://www.openbooksonline.com/group/chhand/forum/topics/5170231:To...


ध्यातव्य है, कि उपरोक्त लिंक पर प्रस्तुत हुआ आलेख उपलब्ध जानकारियों के आधार पर ही है. उसे कत्तई प्रस्तुतकर्त्ता के ज्ञान का मानक मत मान लीजियेगा.

हालाँकि, आपने मेरे कहे से जिस वाक्य या वाक्यांश को उद्धृत कर मुझसे प्रश्न किये हैं, वह संवाद मैंने आदरणीय गिरिराज भाई से अपने विशेष अंदाज़ में किया था. कारण कि, मैं अपनी प्रस्तुतियों (छन्दों, कविताओं या गीतों) में इस तरह की भाषा-शैली का बहुधा प्रयोग नहीं करता जैसी भाषा-शैली का प्रयोग मैंने प्रस्तुत तीनों कुण्डलिया में किया है.  मेरी रचनाओं में ऐसे इक्के-दुक्के उदाहरण ही हैं. 

खैर, आपके प्रश्नों का सदा-सदा सादर सम्मान है.

आदरणीय बृजेश भाईजी, एक बातऔर, आपकी टिप्पणी से दो तरह की बातें समझ में आयी हैं. हो सकता है कि मैं पूरी तरह से गलत भी होऊँ. लेकिन मेरी जितनी समझ है उसी के आधार पर कह पा रहा हूँ.

पहली बात तो ये कि, ओबीओ के मंच पर रचनाकर्म के प्रति अपनायी गयी ’सीखने-सिखाने’ की व्यवस्था, जिसके तहत रचनाओं को मान्यता दी जाती है, को आप समझ नहीं पाये हैं. या, अब स्वीकार नहीं कर पारहे हैं.  इसी कारण संभवतः आप अभ्यासकर्म के क्रम में खारिज हुई रचनाओं के ’उच्च स्तर’ के प्रति आपको इतनी आश्वस्ति है. आदरणीय, ऐसा उचित नहीं.
दूसरी बात, कि, आपको इस मंच पर संभवतः किसी अहमन्य का अन्यथा प्रभाव दीख रहा है जो रचनाकर्म की स्वीकृतियों में अन्यथा मनमाना करता है.
इन दोनों बातों पर लेकिन मैं क्या उत्तर दे सकता हूँ ? यह न मुझे कभी लगा, न ऐसी किसी बात को मैं मान्यता ही देता हूँ. अपेक्षा है, आदरणीय, कि आप भी न दें.  इस तरह के ’अन्यथा तथ्य’ सदा से कमजोर लोगों की आड़ हुआ करते हैं. आप तो कभी कमजोर नहीं थे.

सर्वोपरि, यह तो आप भी जानते हैं कि रचनाओं की स्वीकृति या अस्वीकृति मेरे दायित्वक्षेत्र के बाहर की बातें हैं. और रही बात किसी अहमन्य के प्रभाव की बातें, तो ऐसा इस मंच के लिए कहना उचित नहीं है, आदरणीय, न शोभा देता है.

हम सभी विद्यार्थियों को रचनाकर्म की अन्यान्य विधाओं में जो कुछ भी जानकारी मिली है उसका मुख्य कारण इस मंच का अनुशासन और विशेष वातावरण ही है जो सतत एवं लगनशील अभ्यासकर्मी को ठोंक-पीट कर रचनाकर्म की मूलभूत बातें सिखा देता है.   

सादर

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on July 12, 2014 at 4:51pm

प्रिय सौरभ भाई.. तीनों कुण्डलियाँ सुन्दर बनीं सुन्दर भाव जिंदगी के उतार चढाव बिभिन्न रंग दर्शनीय हैं यही तो जिंदगी की अबूझ पहेली हैं
तुकांत अतुकांत के बारे में जो चर्चा चल रही है समझायेंगे तो हम भी ज्ञान बढ़ा लेंगे

भ्रमर ५

Comment by बृजेश नीरज on July 11, 2014 at 11:48pm

आदरणीय सौरभ जी,

गज़ब! लाजवाब कहन और शिल्प देखते बनता है! इन अप्रतिम कुंडलियों के लिए आपको हार्दिक बधाई!

परन्तु एक प्रश्न-

//हतभाग्य  और सौभाग्य  के तुक निर्वहन पर कई पारखी पाठक मीन-मेखी ढंग में नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं. लेकिन कई बार बातें इसी अलबताहे स्वर में रुचिकर लगती हैं, और ये गलत नहीं है//

आदरणीय इस मंच पर तुकान्त दोष के कारण असंख्य रचनाएँ खारिज की गई हैं. उनमें मेरी भी रचनाएँ शामिल हैं. मेरे कुछ नवगीत भी इसी आधार पर इस मंच द्वारा अस्वीकृत किए गए जबकि नवगीत में तुकान्त को लेकर कुछ स्वतंत्रता दी जाती है. इसके बावजूद इस मंच के सुधीजनों की आपत्तियों और आपके निर्देशों का पालन करते हुए मैंने सुधार के प्रयास किए और मैं संतुष्ट हूँ.

लेकिन आपकी उपरोक्त पंक्तियाँ मुझे भ्रम में डाल रही हैं. अतः मेरी शंका का निवारण करने की कृपा करें-

१- तुक निर्वहन में ली गई छूट कब और किन परिस्थितियों में गलत नहीं होती?

२- तुक निर्वहन में छूट जायज है यह तय कौन करेगा और किस आधार पर?

आपके मार्गदर्शन की प्रतीक्षा है.

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2014 at 9:21pm

आदरणीय अरुन अनन्तजी, प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2014 at 9:20pm

आदरणीय गिरिराजभाईजी, आपको मेरा प्रयास रुचिकर लगा यह प्रोत्साहन है मेरे लिए.
वैसे देखा जाय तो हतभाग्य  और सौभाग्य  के तुक निर्वहन पर कई पारखी पाठक मीन-मेखी ढंग में नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं. लेकिन कई बार बातें इसी अलबताहे स्वर में रुचिकर लगती हैं, और ये गलत नहीं है ..  :-)))))))
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2014 at 9:18pm

आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपको मेरा यह बेलाग स्वर रुचा, यह जानना मेरे लिए भी आवश्यक था.  ..  :-))))
सादर धन्यवाद आदरणीया.

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