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एक नया बीज फिर अंकुरित होने वाला है

मैंने हिटलर को नहीं देखा

तुम्हें देखा है

तुम भी विस्तारवादी हो

अपनी सत्ता बचाए रखना चाहते हो

किसी भी कीमत पर

 

तुम बहुत अच्छे आदमी हो

नहीं, शायद थे

यह ‘है’ और ‘थे’ बहुत कष्ट देता है मुझे 

अक्सर समझ नहीं पाता

कब ‘है’, ‘थे’ में बदल दिया जाना चाहिए 

 

तुम अच्छे से कब कमतर हो गए

पता नहीं चला

 

एक दिन सुबह 

पेड़ से आम टूटकर नीचे गिरे थे

तुम्हें अच्छा नहीं लगा

पतझड़ में पत्तों का गिरना

तुम्हें नहीं सुहाता

बीजों का अंकुरण

किसी तने में नए कल्ले फूटना

तुम्हें नहीं भाता 

 

इस पूरी धरती को रौंदकर

तुम ऊसर बना देना चाहते हो

जिससे इस पर केवल तुम्हारे पद चिन्ह रहें 

 

तुम सोचते हो

तुम अलग हो/ अनोखे 

शायद कुछ अंग अधिक हैं तुम्हारे पास

कुछ किताबें ज्यादा बाँची हैं

अधिक है बुद्धि

अधिक पैनी है तुम्हारी सोच

कबीर से भी अधिक 

 

लेकिन देखो

तुम्हारी कनपटी के बाल

धीरे-धीरे सफ़ेद हो रहे हैं

 

बदलाव किसी का इंतज़ार नहीं करते

ज्वालामुखी से जब लावा फूटता है न

तो सब कुछ भस्म हो जाता है;

सुनामी सबको निगल जाती है

 

हिटलर का साम्राज्य नेस्तनाबूत हो गया

तुम भी बच न सकोगे

समुद्र में तेज़ लहरें उठने लगी हैं

ज्वालामुखी धधक रहा है

 

एक नया बीज फिर अंकुरित होने वाला है  

- बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on July 21, 2014 at 9:35pm

दुःख हुआ इस तरह की प्रतिक्रिया से.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 20, 2014 at 2:18pm

ये क्या कहा आपने ? अतिशय उदारता से सम्मान दे दिया, आदरणीय, जिसका मैं कभी भागीदार नहीं हूँ ! सारा कुछ तो इस मंच का ही है. व्यक्तिवाची आकलनों तथा अनुकरणों का मैं कभी हामी नहीं रहा. इसका तो आपको भी भान था. संभवतः आप अब भूल गये. या इसे समझ नहीं पाये थे.

आगे से आप मेरा नाम इन संदर्भों में न लिया करें. अब तो आपको भी खूब समझ में आ चुका होगा कि मेरे जैसे लोग अनवरत सीखने के क्रम में ही रहा करते हैं. मुझे इसका भी अहसास है कि मेरे द्वारा सुनिश्चित इस मर्यादा से आप ही को अत्यंत प्रसन्नता होगी.

इस उच्च स्तरीय रचना के लिए पुनः हार्दिक शुभकामनाएँ.

सादर

Comment by बृजेश नीरज on July 17, 2014 at 10:15pm

आदरणीय सौरभ जी, आपका हार्दिक आभार!

जो कुछ भी अभिव्यक्त कर पा रहा हूँ, वह इस मंच और आपके मार्गदर्शन की देन है. आपका सतत मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे, इसी शुभेच्छा के साथ आपका पुनः बहुत-बहुत आभार!

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 15, 2014 at 2:58am

अद्भुत !
एक निर्वचनीय पद्य-प्रस्तुति ! 
 
इस प्रस्तुति पर आगे कुछ कहने के पूर्व अपने वीनसभाई से :
देखिए.. यह होता है पद्य-समझ का निरभ्र आकाश ! यह होती है स्वतंत्र-प्रस्तुति की आश्वस्तकारी ऊँचाई !
 
वीनस भाई, हमें उस वाकये का स्मरण हो आया है, जब हम-आप आदरणीय वीरेन्द्र नास्तिकजी, आदरणीय बृजेश भाई के साथ कार से आलमबाग जा रहे थे. रचनाकर्म के क्रम में आदरणीय बृजेशभाईजी द्वारा अपनी प्रस्तुतियों पर इस ’मंच’ से लगातार सलाह आदि लेने के परिप्रेक्ष्य में आपका सुझाव आया था, कि, किसी रचनाकार को उसकी प्रस्तुतियों पर ’किसी मंच’ द्वारा कोई सलाह कॉन्सेप्चुअल ही होनी चाहिये. अन्यथा, आपका आशय था, कि, रचनाकार की संभावनाओं के कहीं दब जाने खतरा बना रहता है. उस रचनाकार के मानसिक रूप से परमुखापेक्षी हो जाने की आशंका बनी रहती है.
भाई, आपकी इस आशंका पर मेरा जो जवाब था, आपको अवश्य याद होगा. आज मेरे उस जवाब को शब्द-प्रति-शब्द फलीभूत हुआ देखने पर मुझसे अधिक और कोई प्रसन्न होगा क्या ? .. अवश्य-अवश्य नहीं !
 
वीनस भाई, आदरणीय बृजेश भाईजी जैसे रचनाकर्मी और साहित्यजीवी उंगली पकड़ कर जीने वालों में से नहीं हुआ करते. और, ऐसा हर उस मुखर रचनाकार को होना ही चाहिये जो इस ’मंच’ जैसे सुझाव-प्रदाताओं से दिशायुक्त होने की अपेक्षा करता है ! वीनस भाई, एक प्रखर मनस सहयोगात्मक संबल चाहता है बस ! एक उड़ाका परिन्दा अपने पंखों की सबलता के प्रति आश्वस्ति चाहता है बस ! आश्वस्त होते ही उसकी उड़ान सगरे जगत को विस्मित करती है ! यही तो साहित्यिक ’प्रवाह’ की सनातन धारा रही है ! है न ?
यह मंच ऐसे ही प्रखर, श्रद्धावनत, सतत लगनशील तथा गंभीर अभ्यासकर्मियों की अपेक्षा करता है. संवेदनशील रचनाकारों की दैदिप्यमान प्रस्तुतियों का यह मंच सदा से आकांक्षी रहा भी है.
भाई, हम इस मंच के उन सदस्यों में से हैं जो परस्पर ’सीखने-सिखाने’ की प्रक्रिया को सारस्वत प्रक्रिया मानते हैं. इस मंच का कॉन्सेप्चुअल उद्येश्य यही है.. इससे किसी सदस्य द्वारा मुँह मोड़ लिया जाना उसकी जघन्य कृतघ्नता होगी.
 
अब इस प्रस्तुति पर:
आदरणीय बृजेशभाईजी, आपकी यह रचना एक दीप्त शलाका सदृश प्रस्तुत हुई है ! इसके उजास में शब्द-वाणी से मुखर और रचनाकर्म से प्रखर और-और धुरंधर रचनाकार सदिश हों.. तथा सुराह पायें, इसीकी उदार अपेक्षा है.
हृदय की अतल गहराइयों से अनेकानेक शुभकामनाएँ. ..
 
भाईजी, प्रखरता बनी रहे. लेखन-जगत इस आलोक में बहुत कुछ ढूँढ लेगा. ढूँढता रहा भी है.
 
 
और.. अभिभूत करती इस रचना के कथ्य से एक विन्दु के परिप्रेक्ष्य में एक लाइटर-नोट :
आदरणीय, रचना ’कनपटी’ ही नहीं, तथाकथित अहमन्य वरिष्ठों के श्मश्रू की श्वेताभ दीप्ति से भी दृष्ट्येतर न हो..  :-)))
 
शुभ-शुभ

Comment by बृजेश नीरज on July 12, 2014 at 7:27am
आदरणीय विजय शंकर जी आपका हार्दिक आभार।
Comment by बृजेश नीरज on July 12, 2014 at 7:25am
आदरणीय विजय प्रकाश जी, इस मंच पर फेस बुकिया स्टाइल में जिस तरह वाह-वाहियों का दौर चल निकला है उससे किसी रचनाकर्मी को कोई लाभ नहीं। फेसबुक की आलोचना और विरोध करने वाले भी अब फेसबुक पर ही सर्वाधिक सक्रिय हैं। ऐसे माहौल में आपसे चर्चा सुखद है। समालोचना भविष्य के रचनाकर्म के लिए रचनाकार को आगाह करती है इसलिए मैं कभी अन्यथा नहीं लेता।
सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on July 12, 2014 at 6:01am
आदरणीय बृजेश जी , बहुत ही सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई।
Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 12, 2014 at 12:25am

बृजेश जी,
थोड़ा और कह लेने दीजिये (अन्यथा न लीजियेगा )
हमने दियासलाई की छोटी काँठी से मशालों को जलते देखा है और इनसे व्यवस्था का अग्निदाह भी देखा है. आप तो ज्वालामुखी ही धधका रहे है. विरोध दियासलाई की काँठी ही तो है. एक बार पुनः आपको हार्दिक बधाई.

Comment by बृजेश नीरज on July 12, 2014 at 12:02am

आदरणीय विजय प्रकाश जी आपका हार्दिक आभार! आपके मार्गदर्शन के लिए कृतज्ञ हूँ.

'तुम' को परिभाषित करने की कोई आवश्यकता इस रचना में महसूस नहीं हुई. 'अपरिचित' है, ऐसा लिखते समय तो मुझे नहीं लगा, हो सकता है आपको पढ़ते हुए लगा हो. किसी x, y, z के संयोग-वियोग को लेकर यह कविता नहीं है. 'तुम' के चुनाव का विकल्प पाठक के समक्ष खुला है. उसे सीमित करना इस कविता के साथ मुझे अन्याय लगता है. एक बात और यहाँ संग्राम कहाँ है? विरोध है, विद्रोह के स्वर महसूस किए जा सकते हैं लेकिन संग्राम? संग्राम बहुत बड़ा शब्द है इस अभिव्यक्ति के लिए. 

सादर! 

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 11, 2014 at 11:40pm

प्रिय बृजेश जी,
युवा आक्रोश, नया तेवर, नया कलेवर, बहुत ही सार्थक लग रहा है आपकी इस रचना के माध्यम से.
परन्तु यदि "तुम" अपरिचित , अपरिभाषित है तो संग्राम किससे? आपकी इस रक्त में उष्णता का संचार कराती रचना पर हार्दिक बधाई.

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