१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें
फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें
तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है
हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें
तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें
न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको
तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ भर- भर दुहाई दें
कहाँ महफ़ूज़ वो माँ दूध से जिसने हमे पाला
झुका देती जबीं अपनी सजाएँ जब कसाई दें
उड़े कैसे भला तितली लगे हैं घात में शातिर
खुदा की रहमतें ही बस उन्हें अब तो रिहाई दें
करें फ़रियाद कब किससे जहाँ में कौन है किसका
सितम गर रूहें , खुद रब की अदालत में सफ़ाई दें
फ़सुर्दा =मुरझाई हुई
महफ़ूज़ =सुरक्षित
जबीं =माथा
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
मिथिलेश जी,आपकी सराहना पाकर ग़ज़ल मुकम्मल हुई ,ये ग़ज़ल रोज के अखबरात की सुर्ख़ियों के भावावेश का परिणाम है ..............हर हर्फ़ में गुंथा था दर्द किसी का लोगों के लिए वो इक ग़ज़ल बन गई ........
बहुत बहुत सुक्रिया मिथिलेश जी
क्या बात है क्या उम्दा शेर कहा है -
करें फ़रियाद कब किससे जहाँ में कौन है किसका
सितम गर रूहें , खुद रब की अदालत में सफ़ाई दें
आदरणीया राजेश कुमारी जी ..बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम पर आपकी गज़ब की कमांड है .... बात होते होते क्या उम्दा शेर निकलते है कि बस झूम जाए ....पूरी ग़ज़ल उम्दा है ..... नमन इस लेखनी को ...
आ० सौरभ जी ,आज दो दिन बाद नेट आया तो ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और समीक्षा देखकर प्रसन्नता हुई |जी आपका कहना सही है कभी कभी सोच और कहन के दरमियाँ फांसला होता है कुछ संशोधन तो करने पड़े हैं किन्तु अब मैं आश्वस्त हूँ की अशआर स्पष्ट अपनी बात रखने में सफल हैं |आपका हार्दिक आभार |
इस ग़ज़ल पर आते-आते देर हुई है. लेकिन जिस तरह से चर्चा हुई है, उससे मन आश्वस्त है कि सोच और कहन के बीच थोड़ा फ़ासला जरूर था.
इस ग़ज़ल के कई-कई शेर और समय चाहते थे, आदरणीया राजेशजी. आपकी ग़ज़लों को अब पकना जरूरी है. तनिक भी समय मिले शेर पकना शुरू कर देंगे.
फिर पाठक मुत्मईन न हों हो ही नहीं सकता.
बहरहाल, इस प्रस्तुति के लिए सादर अभिनन्दन.
शुभ-शुभ
आ० कल्पना दी ,ग़ज़ल को आपका आशीष मिला ग़ज़ल धन्य हुई ,इस अनुमोदन के लिए दिली आभार स्वीकारें |
तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार है दिखता
हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें
तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से नोंचते कलियाँ
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें...
तन-मन को झकझोरने वाले शेर कहे हैं प्रिय राजेश जी, मन से बधाई स्वीकार कीजिये
जितेन्द्र भैय्या,आपको ग़ज़ल के भाव प्रभावित किये ,आपको ग़ज़ल अच्छी लगी तहे दिल से शुक्रिया ,मेरा लिखना सार्थक हुआ |शुभ कामनाएँ|
न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको
तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ भर- भर दुहाई दें............बहुत खूब शेर, मन को झंझोड़ देता है
करें फ़रियाद कब किससे जहाँ में कौन है किसका
सितम गर रूह, खुद रब की अदालत में सफ़ाई दें.............बहुत सुंदर, किन्तु आजकल रूह को रब से मिलने का वक्त ही नही है
बहुत ही उम्दा गजल कही है आपने आदरणीया राजेश दीदी. हर एक शेर एक साफ़ आईने की तरह, आपको को तहे दिल से बधाई
विनय कुमार सिंह जी ,आपको ग़ज़ल पसंद तहे दिल से आभार |
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