Comment
आदरणीय जीतेन्द्र जी वर्तमान संदर्भो को बखूबी चित्रित करती शानदार रचना पर आपको हार्दिक बधाई सादर
आदमी का भला करना ही
नहीं चाहता है आदमी ।
आदमी से दूरी बनाता है आदमी
आदमी आदमी के बीच तरह ,
तरह की दीवारें बनाता है आदमी
दीवारों के इस पार - उस पार
दीवारों से खुश हो लेता है आदमी ॥
मिलाजुलाकर कहें तो हर मर्ज का कारण ही है आदमी...सादर!
पूर्ण रचना सच को बयाँ करती. बाकी आपने आदरणीय विजय प्रकाश जी की प्रतिक्रिया के प्रतिउत्तर में कह ही दिया है :-))
आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय डा.विजय शंकर जी. सादर!
आ० विजय शंकर जी,
इस रचना पर अनेक बधाईयां. आज का आदमी "अहंब्रमोस्मि " के अहं का भ्रम
पालते हुए उसका पोषक बन गया है. आपकी रचना आज के आदमी के इस सच को मुखरित करती है.सादर.
मान्यवर
आपने आदमी को नए ढंग से परिभाषित किया है i बधाई i
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