आई बरखा झूमती
कलियों का मुख चूमती
पवन झकोरे सर-सर करते
डाली –डाली झूमती
आँगन की महके है माटी
गमले में तुलसी लहराती
बैठ झरोके टुक –टुक देखूँ
भीगी मोरें नाचती
अंबर पर मेघों का पहरा
श्याम रंग फैला है गहरा
मेघों की धड़के है छाती
पपीहा टेर सुहाती
महक उठी कृषकों की पौरें
धीमी हो गई रहट की दौड़ें
गीली हो गई दिन और रातें
नई उमंगें झाँकती
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना मिश्रा बाजपेई
Comment
आदरणीय पाण्डेय सर।, आप का सुझाव सिर आँखों पर । आप ने रचना को समय दिया बहुत आभारी हूँ मैं /सादर
टुक टुक लिखने में गलती हो गई है ध्यान रखूंगी .
आपकी प्रस्तुति के लिए सादर बधाइयाँ.
अभ्यासरत रहें आदरणीया. इससे कई तथ्य स्पष्ट होंगे.
एक बात और, टूक-टूक को टुक-टुक लिखते हैं. अवश्य ही यह ट्ंकण त्रुटि ही है.
सुन्दर रचना !
आ0 माहेश्वरी जी बहुत शुक्रिया /सादर
आ0 जितेंद्र जी बहुत शुक्रिया /सादर
आदरणीय धामी जी बहुत शुक्रिया /सादर
बर्षा ऋतु का सुन्दर चित्रण किया है इसके लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ।आदरणीया कल्पना जी
आ0 कल्पना जी गीत के माध्सम से बर्षा ऋतु का सुन्दर चित्रण किया है इसके लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
बरखा ऋतू के आगमन पर बहुत सुंदर भाव पिरोये, बधाई आदरणीया कल्पना जी
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