गाड़ी रुकते ही सामने से एक छोटी बच्ची अपने पीठ पर भाई को टांगे हुए लपकी । "बाबूजी , कुछ दे दो ना , भाई को भूख लगी है" , सुनते ही एक पल को तो दया आई लेकिन फिर न जाने क्यों क्रोध आ गया । "तुम लोग भी , इतनी कम उम्र में भीख मांगने लगते हो , पता नहीं कैसे माँ बाप हैं जो पैदा करके इनको सड़क पर छोड़ देते हैं"।
" चल बाबू , ये साहब भी भाषण ही देंगे , कुछ और नहीं दे सकते" और वो दूसरे गाड़ी की ओर बढ़ गयी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आभार सौरभजी एवम लक्ष्मण प्रसादजी..
दशा एखकर दया आना स्वाभविक है पर "व्यवसाय" बनते जा रहे रूप को देखकर क्रोध में नसीहत को "भाषण"
कहकर आगे बढ़ने की बढती प्रवर्ती घातक रूप से नासूर का तरह इस व्यवसाय को पनपा रही है, जिसके पीछे
गिरोह तक सक्रिय देखे गए है | कहानी के जिरए इस बिंदु को उठाने की अच्छी कोशिश हुई है |
हर तरफ़ प्रोफ़ेश्नलिज्म का बोलाला है.. ’मांगता है क्या ?’ स्टाइल में ! .. उस बच्ची ने भी ऐसा ही रूप अख़्तियार कर लिया है.. ’नो नॉनसेन्स टॉक प्लीऽऽज’ के तहत.
एक बढिया प्रस्तुति के लिए बधाई.
लघुकथा के पात्रों के संवादों में तनिक कसावट कुल-प्रभाव को विन्दुवत करती है.
शुभेच्छाएँ
आभार जितेंद्रजी..
बहुत ही बढ़िया बिंदु पर आपने अपनी रचना साझा कर, ध्यान आकर्षित किया है आदरणीय विनय जी. रचना पर बधाई आपको
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