आज अचानक बेटा अपने बीबी बच्चों सहित गांव पंहुचा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । कहाँ तो बुलाने पे भी कोई न कोई बहाना बना देता था और अगर आया भी तो अकेला और उसी दिन वापस ।
" दादा , दादी के पैर छुओ बच्चों" , और बहू ने भी झुक के पैर छुए दोनों के । फिर बहू ने लाड़ दिखाते हुए कहा " क्या बाबूजी , आप कितने दुबले हो गए हैं , लगता है माँ आपका ध्यान नहीं रख पाती , अब आप लोग हमारे साथ ही चल कर रहिये" ।
"हाँ , हाँ , क्यों नहीं , बिलकुल अब आप लोग चलिए हमारे साथ , क्या रखा है अब यहाँ" , बेटा भी कहने लगा और माँ के पास बैठ गया ।
ये क्या हो गया है इनको , इतना परिवर्तन कैसे हो गया , समझ नहीं पा रहे थे बाबूजी कि अचानक अख़बार की खबर का ध्यान आ गया । उसके गाँव के बगल से बाईपास निकल रहा था और अब वहाँ की जमीनों के दाम कई गुना बढ़ गए थे ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आभार सौरभजी |
यह लघुकथा चुभती हुई मगर एक सच्चाई है. यह सच्चई जाने कितने गाँवों में कितने ही रूपों घटी है, या घटती रही है.
आपकी पारखी दृष्टि के लिए हृदय से शुभकामनाएँ. कथा वस्तुतः सोचने को मज़बूर देती है. शुभ-शुभ
आभार आमोद कुमारजी एवम शुभ्रांशु पाण्डेयजी..
आदरणीय विनय जी,
गांव की जमीन आज फ़िर बुला रही है लेकिन आने का उद्देश्य बदल गया है..सुन्दर कथा.
सादर.
एक पुराने बरगद की जिसकी सभी टहनियाँ लोग काट काट के ले गए ... और जो सबको अपनी छांव से सहारा देता था ... उसके ताने को भी काटने को आतुर .... उस बूढ़े बरगद की व्यथा को दर्शाने के लिए बधाई स्वीकार करें ... सादर ...
आभार डॉ विजय शंकरजी एवम डॉ आशुतोष मिश्रजी..
कलियुगी दास्तान का बखूबी चित्रण किया है आपने ..सादर
आभार डॉ गोपाल नारायणजी..
वही शाश्वत व्यथा i नए अंदाज में i
क्या कभी मानसिकता बदलेगी i ---- सादर i
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