"ये क्या मम्मी , फिर आपने इस ठेले वाले से सब्ज़ी खरीद ली । कितनी बार कहा है की सामने वाले शॉपिंग माल से ले लिया करो । सब्ज़ियाँ ताज़ी भी मिलती हैं और अच्छी भी । क्या मिलता है आपको इसके पास"।
"बेटा , इसकी सब्ज़ी में अपनापन है और उसमे जो स्वाद मिलता है न वो और कहीं नहीं मिलता"।
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आभार सुभ्रांशुजी ..
आदरणीय विनय जी,
आज के इस व्यावसायिक दौर में जहां सामान के साथ साथ सम्बन्ध भी युज एण्ड थ्रो हो गये हैं वहां इस तरह की बातें खत्म होती जा रही है...सुन्दर कथा
सादर.
आभार गिरिराज भण्डारीजी..
नये बच्चे ये बात नही समख पाते , समझाना भी ज़रूरी है । सुन्दर लघुकथा , आपको बधाइयाँ ॥
आभार जितेंद्रजी , सौरभजी एंड राजेश कुमारीजी..
जिस चीज में अपना पन होता है वो हमे भावनात्मक रूप से भी बांधे रहता है और इसे वही समझ सकता है जो इससे जुड़ा हो,स्वाद कथा का मर्म बहुत दिल के करीब लगा ,लघु कथा अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब है बहुत- बहुत बधाई|
सामाजिक व्यवहार को आग्रही बाज़ारवाद जिस तह से निशाना बनाता हुआ निगलता जा रहा है उसकी ज़द में ये सब्ज़ीवाले टाइप के छोटे व्यापारी अनायास आ गये हैं. आजकी एक भावनात्मक ही नहीं प्रमुख सामाजिक समस्या को इस लघुकथा के माध्यम से शब्द मिले हैं.
हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी.
बहुत सुंदर कथा, बस!..यह अपनेपन वाला स्वाद बहुत कम ही समझते है. बधाई आदरणीय विनय जी
आभार डॉ विजय शंकरजी , डॉ गोपाल नारायणजी एवम संतलाल जी ..
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी,
अपनत्व को रूपायित करती लघु कथा, संदेशपरक, साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
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