गजल- रंग पानी सा....
बह्र - 2122, 2122, 2122
नारि ही जब शक्ति की दुर्गा-सती है।
आज कल हालात की मारी हुयी है।।
काल बन भस्मासुरों को भस्म कर दें,
निर्भया बन वह सड़क पर लुट रही है।
विष्णु-शिव-ब्रह्मा हुआ है आदमी अब,
सृ-िष्ट - नारी की कहानी त्रासदी है।
नित गरीबी आग में पकती रही पर,
भूख, बच्चों की पढायी सालती है।
रक्त नर का पी कपाली बन लड़ी जो,
खून में लथपथ शिवानी सो रही है।
द्राैपदी-सीता-अहिल्या चुप रही कब ?
क्रान्ति जन-जन में यहॉं पलने लगी है।
न्याय अन्धा, तन्त्र बहरा, मूक जन का-
रंग पानी सा, मगर पानी नही है।
के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत अच्छी कोशिश के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें, भाई केवल प्रसाद जी.
ई के काफ़िये के साथ ईं का काफ़िया दोषपूर्ण माना जायेगा.
आप सतत रचनाशील रहें.
आ0 भण्डारी भाई जी, प्रस्तुत गजल पर आपके उत्साहवर्धन एवं उचित मार्गदर्शन हेतु हार्दिक आभार।
आ0 गोपाल भाई जी, प्रस्तुत गजल पर आपके उत्साहवर्धन एवं उचित मार्गदर्शन हेतु हार्दिक आभार।
आ0 कल्पना जी, प्रस्तुत गजल पर आपके उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार।
आ0 विजय शंकर भाई जी, उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय केवल भाई , खूबसूरत ग़ज़ल कही है , आपको दिली बधाइयाँ !
रक्त नर का पी कपाली बन लड़ी जो,
खून में लथपथ शिवानी सो रही है। लाजवाब शेर , बधाई ||
मतले को शायद ऐसा करना जादा अच्छा रहेगा -- आज क्यों हालात की मारी हुयी है , अभी बात साफ़ नहीं हो रही है | सोच के देखिएगा |
रक्त नर का पी कपाली बन लड़ी जो,
खून में लथपथ शिवानी सो रही है।
वाह------ अति सुन्दर i क्या बात है केवल जी i
रक्त नर का पी कपाली बन लड़ी जो,
खून में लथपथ शिवानी सो रही है।..............................आदरणीय केवल सर बहुत सुंदर गजल कही है आपने ॥बहुत बधाई /सादर
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