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दादी, हामिद और ईद (लघुकथा) // --सौरभ

हामिद अब बड़ा हो गया है. अच्छा कमाता है. ग़ल्फ़ में है न आजकल !

इस बार की ईद में हामिद वहीं से ’फूड-प्रोसेसर’ ले आया है, कुछ और बुढिया गयी अपनी दादी अमीना के लिए !

 

ममता में अघायी पगली की दोनों आँखें रह-रह कर गंगा-जमुना हुई जा रही हैं. बार-बार आशीषों से नवाज़ रही है बुढिया. अमीना को आजभी वो ईद खूब याद है जब हामिद उसके लिए ईदग़ाह के मेले से चिमटा मोल ले आया था. हामिद का वो चिमटा आज भी उसकी ’जान’ है.
".. कितना खयाल रखता है हामिद ! .. अब उसे रसोई के ’बखत’ जियादा जूझना नहीं पड़ेगा.. जब हामिद वापस चला जायेगा, अपनी बहुरिया के साथ, अपने बेटे के साथ.. "
************************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 11:58am

आदरणीया वन्दनाजी, लघुकथा पर आपकी संवेदनापूरित टिप्पणी से मैं एक रचनाकार के तौर पर उत्साहित महसूस कर रहा हँ.

हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 11:56am

आपको प्रस्तुत लघुकथा रोचक और सराहनीय लगी, इस हेतु हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय विनय कुमारजी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 30, 2014 at 11:55am

आदरणीय विजयशंकरजी, आपने लघुकथा के विन्यास को अनुमोदित कर मेरा उत्साहवर्द्धन किया है. मैं आभारी हूँ.
आप सही कहते हैं, आदरणीय, कि परिस्थितियों ने कई हामिद पैदा किये हैं. और उनके लिए जेबखर्च के पैसे से दादी के लिए चिमटा तक मोल लेना दुश्वार है. किन्तु यह भी सच है, कि यह कथा किसी ऐसी समस्या पर बात नहीं करती. न इसका यह कोई हेतु है. यह लघुकथा अपने कथासूत्र को वहीं से उठाती है जिस विन्दु पर मुंशी प्रेमचंद की कथा ’ईदग़ाह’ समाप्त होती है. तात्पर्य है, आजके सामाजिक तथा पारिवारिक परिवर्तन को रेखांकित करना.
कथा के इन विन्दु को आपकी सुधी दृष्टि ने अवश्य परखा होगा.  
सादर

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 30, 2014 at 11:32am

आदरणीय सौरभ सर ..लघु कथा एक दर्द का अहसास कराती है ..आखिरी पंक्तियाँ बिलकुल अंतर से हिला देती हैं ..आत्म चितन के लिए बिबस करती हैं ..मैं भी राखी पे घर जा रहा हू मॉ से कहा क्या ले आऊँ ..सामान भी ले जाऊँगा ..फिर कई महीनो के लिए बापस आ जाऊँगा ..ये कथा है या हम जैसे तरक्की के नाम पर स्वार्थी होते जा रहे लोगों के गाल पर तमाचा ....झकझोरने वाली इस रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 30, 2014 at 11:28am

कालजयी साहित्य की जड़ें कितनी गहरी होती हैं जो एक बरगद से हज़ारों बरगद हो जाने की संभावनाओं को अपने अंदर समोये रहती हैं. प्रेमचंद का हामिद समय के साथ "सयाना" हो गया चुका है मगर हमीदा के स्मृति पटल पर चिमटे की छाप दिन-ब-दिन और गहरी और गहरी हुई है। आपकी यह लघुकथा उपरोक्त तथ्यों  की पुष्टि करती दिखाई देती है.        

बगैर "ईदगाह" जाये ऐसी कृति की आत्मा तक पहुँचना तक़रीबन तक़रीबन नामुमकिन है. भले ही आपकी यह पहली लघुकथा है लेकिन कहना पड़ेगा कि यह एक सफल रचना है. सुगठित विन्यास और चुस्त रफ़्तार  ने रचना को रोचक और आकर्षक बनाया है. सब से महत्वपूर्ण बात, इस लघुकथा में "कथा-तत्व" मौजूद है. रचना के पात्र लेखक के हाथों की कठपुतलियाँ नहीं हैं, न तो रचनाकार ने ज़बरदस्ती उनसे कुछ करवाया है और न ही कहलवाया है, जो हुआ या जो कहा गया उसकी डोर परिस्थितियों के हाथ में छोड़ दी गई है, जिसने इस रचना में जान डाल दी. उस से भी महत्वपूर्ण बात यह कि रचना लघु भी है और इसमें कथा भी है,  अत: इस सुन्दर, सुगठित, सरस और सफल लघुकथा हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें आ० सौरभ भाई जी.   

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 29, 2014 at 11:15pm

बहुत सुंदर लघुकथा , आदरणीय सौरभ जी. आपको बहुत बहुत बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 29, 2014 at 10:41pm

आदरणीय सौरभ भाई , ये तो अच्छा हुआ के फ़ूड प्रोसेसर वो खुद लाके दिया ईद में , वहीं से भिजवा ही देता तो क्या कर लेते , एक ख़त लिख देता इस ईद में नहीं आ पा रहा हूँ | अभी भी पुराने हामिद में कुछ पुरानी बातें बाकी हैं | लेकिन लक्षण ठीक नहीं हैं | इस बेहतरीन लघु कथा के लिए आपको दिली मुबारक बाद ||


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 29, 2014 at 10:10pm

"कितना खयाल रखता है हामिद ! .. अब उसे रसोई के ’बखत’ जियादा जूझना नहीं पड़ेगा.. जब हामिद वापस चला जायेगा, अपनी बहुरिया के साथ, अपने बेटे के साथ.. "  कितना दर्द बटोर कर लाई  हैं ये पंक्तियाँ ...दादी की घर में स्थिति को पूर्णतः दर्शा रही हैं ।  उसको तो अकेले ही खटना है काम में चाहे कितनी बुढ़िया हो जाए । सच में वक़्त बदल गया है ।  प्रेमचंद का हामिद सचमुच बड़ा हो गया है ।  एक फूडप्रोसेसर दादी को खुश कर देगा, क्यूंकि साथ तो  नहीं रख सकता ना अपनी दादी को | बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है, आ० सौरभ जी आपने । प्रेमचंद की ईदग़ाह कहानी की याद भी ताज़ा कर दी | बहुत-बहुत बधाई आपको ...ईद मुबारक

Comment by vandana on July 29, 2014 at 8:52pm

सच में दर्द बढ़ गया है दादी अमीना का बूढ़ी काकी भी पत्तलें ढूँढ रही है गलियों में.... और हम शर्मिंदा होकर भी उनकी मदद इसलिए नहीं कर पाते कि उनके बच्चे कहीं हम से नाराज न हो जाये

दिलो दिमाग को झिंझोड़ गयी आपकी यह लघुकथा आदरणीय सादर नमन 

Comment by विनय कुमार on July 29, 2014 at 5:23pm

बहुत सुन्दर लघुकथा आदरणीय सौरभ जी , बहुत बहुत बधाई..

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