जाने कहाँ विलुप्त हो गए बचपन के एहसास
हमसे बहुत दूर हो गए ममता भरे हाथ।
जिस प्यार के तले सीखा था जीने का अंदाज
अकेला छोड़ उड़ गए सुनहरे परवाज़
अपने जज़्बातों का मुकाम पाने को
बेताब है अपना नया घरौदा बनाने को
क्या पता किससे मिले, बिछड़े किसी से
कौन कहेगा तू रहना खुशी से,
जमाने की हाफा-दाफी ने भुला दिया-
अपनों के प्यार की दौलत को
ऊंचा उठने के मनोरथ ने मिटा दिया-
हो जैसे रौनक को
न जाने कैसे सांस ले रहे है जिंदगी के जज़्बात
कितने आँसू के घूंट पी रहे है नैनों के हर ख्वाब।
कल्पना ममिश्रा बाजपेई
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ० लक्ष्मण सर ,बहुत आभार /सादर
आ० सर, बहुत आभार /सादर
ज़िन्दग़ी के भावुक क्षणों को आपने साग्रह शब्द दिये हैं आदरणीया.
सादर बधाई..
बचपन के जज्बातों को लेकर रची सुंदर भाव रचना के लिए बधाई आद कल्पना मिश्रा बाजपेयी जी
हार्दिक आभार भाई आमोद जी ////सादर
आ०श्री गोपाल नारायण सर हार्दिक शुक्रिया /सादर
न जाने कैसे सांस ले रहे है जिंदगी के जज़्बात
कितने आँसू के घूंट पी रहे है नैनों के हर ख्वाब।
आदरणीय कल्पना दीदी ... बहुत बढ़िया ... भाव से ओत-प्रोत ... क्या कहूँ... सब कम है ...
महनीया
आपकी कविता का भाव पक्ष पर्याप्त सबल है i बधाई हो i
आ0 हरिवल्ल्भ सर बहुत आभार /सादर
आदरनिया कुंती दी हार्दिक आभार /सादर ...........................दी आप इस फोटो में बहुत सुंदर लग रहीं है सर के साथ ////////////////
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