मेरी नज़रें तुमको छूतीं
जैसे कोई नन्हा बच्चा
छूता है पानी
रंग रूप से मुग्ध हुआ मन
सोच रहा है कितना अद्भुत
रेशम जैसा तन है
जो तुमको छूकर उड़ती हैं
कितना मादक उन प्रकाश की
बूँदों का यौवन है
रूप नदी में छप छप करते
चंचल मन को सूझ रही है
केवल शैतानी
पोथी पढ़कर सुख की दुख की
धीरे धीरे मन का बच्चा
ज्ञानी हो जाएगा
तन का आधे से भी ज्यादा
हिस्सा होता केवल पानी
तभी जान पाएगा
जीवन मरु में तुम्हें हमेशा
साथ रखेगा जब समझेगा
अपनी नादानी
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेन्द्रजी, हमें भान है, आपके मन का बच्चा उत्पाती है ! लेकिन उसका उत्पाती होना रुचता है. वो पानी में छप-छप करता हुआ चोर आँखों से देखता है और विभोर कर देता है.. :-))
इसे बड़ा होने का हक़ नहीं मिलना चाहिये, भाई.. पोथी-पतरी हटा लीजियेगा अपने शेल्फ़ों से.. .
इस गीत के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ
सुन्दर नवगीत ,बधाई आपको आ0 धर्मेन्द्र जी
बहुत सुन्दर नवगीत ,बधाई आपको धर्मेन्द्र जी
बहुत सुन्दर नवगीत
वाह बहुत सुन्दर नवगीत , बालसुलभ मन केभाव को भी सरलता से व्यक्त किया है ,
ग रूप से मुग्ध हुआ मन
सोच रहा है कितना अद्भुत
रेशम जैसा तन है
जो तुमको छूकर उड़ती हैं
कितना मादक उन प्रकाश की
बूँदों का यौवन है
रूप नदी में छप छप करते
चंचल मन को सूझ रही है
केवल शैतानी]
दोनों बंद सुन्दर है हार्दिक बधाई सुन्दर नवगीत हेतु
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