ताव नित देते रहे..
ज्ञान के वटराज जिनको छॉंव नित देते रहे।
आरियों के वार से वो घाव नित देते रहे।।
कालिदासों को वही विद्योत्मा कैसे मिले,
पंडितों के ज्ञान को वो दॉंव नित देते रहे।
शब्द मुखरित सोच कुंठित कर्म कौरव का वरे,
धर्म के उत्कर्ष में बस ताव नित देते रहे।
चाहना की झाड़ में फॅस जब मलय वन त्यागते,
वक्त-सौरभ-धैर्य-साहस ठॉव नित देते रहे।
शारदे साहित्य व्यंजन में जगह कब द्वेष की,
मन-विषय-विष वासना भटकाव नित देते रहे।
डाल के हर फूल कोमल धूल में मिलते यहॉ,
देवताओं पर चढे़ कुछ भाव नित देते रहे।।
के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 गोपाल भाई, प्रदीप सरजी, राम अवध भाई, भण्डारी भाई व सौरभ सर जी, भाई जी, आप सभी का बहुत बहुत आभार।
भाई केवलजी, आपकी संवेदनशीलता और स्पष्टता कई दफ़े चकित कर देती हैं. चलिये आपने जो कुछ कहा है उसके अपने निहितार्थ हैं.
लेकिन शिल्पगत कई विन्दु अभी साधे जाने हैं. काफ़िया निर्धारण में छाँव और घाव साथ नहीं आ सकते. अन्यथा सिनाद दोष होता है. आपने तो शब्द दाँव भी लेलिया है.
हार्दिक बधाइयाँ
आदरणीय केवल भाई , अति सुन्दर हिन्दी गज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ॥
शारदे साहित्य व्यंजन में जगह कब द्वेष की,
मन-विषय-विष वासना भटकाव नित देते रहे-------------------- बहुत खूब भाई केवल जी , बधाई ॥
ज्ञान के वटराज जिनको छॉंव नित देते रहे।
आरियों के वार से वो घाव नित देते रहे।।
उम्दा ग़ज़ल वह भी ठेठ देवनागरी मे भाई क्या कहने मतला लाजबाब बधाई.
आदरणीय केवल जी
सादर
अति सुन्दर दोहे
सब का मन मोहे
बधाई
केवल जी
बहुत सुन्दर i
चाहना की झाड़ में फॅस जब मलय वन त्यागते,
वक्त-सौरभ-धैर्य-साहस ठॉव नित देते रहे।
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