बहुत सह लिये तानें
बेबुनयादी ....नारी का धूमिल अस्तित्व
कांति विहीन सा लागने लगा
पुरुष के झूठे प्रलोभन में-
उलझती सी गई स्त्री
पुरुषों की पेचीदे फरमाइशों में
ऊपरी बनावट में बेचारी इतनी
उलझी कि अपने भीतर की -
सुंदरता को खो बैठी ।
एक विचार विमर्श ने उसको झकझोरा
जब उसे अपने, होने का भान हुआ
तो स्त्री बागी हो गई
घायल शेरनी की तरह
उसने अब ये कह डाला --
की नारी जापानी गुड़िया नहीं
जो चाबी लगाने मात्र से नाच उठे
पुरुषों को रिझाये ,कमाये
दोहरी जिम्मेदारियाँ
अकेले निभाये ...........
उबासी आती है पुरुषों की
बेफिक्री से, इस कौम के
लिए स्त्री ने खुद की परवाह
किए बिना, अपने को न्यौछावर
करती रही, ...........सोच कर ये
कि ये सिर्फ नारी का कर्तव्य है
और सोचते हो
कि स्त्री चुप रहे, पर क्यों?
बहुत लगा ली उसने आस
बहाये दृग मोती से
कि समझोगे स्त्री मन वेदना को
पर ऐसा न हुआ......
दुष्टता ने स्त्री को छुआ, उसके विश्वास की
चिन्दियाँ जब बिखरने लगी तमाशबीनों के
सामने अपने फटे स्वाभिमान से कैसे सम्हाले
अपनी कुरूप कुचली उस कोमल
भावनाओं को नतीजा ये हुआ कि
नारी आज बन गई शेरनी
अब न छोड़ेगी एक भी प्रतिशोध को
क्या उसने ठीक किया ...................???
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कल्पना मिश्रा बाजपेई
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सर,,,,,,, आप ने जो जो कहा है बिलकुल सही है । प्रयास करूंगी कविता कवित रहे नारा न बने /साभार
किसी प्रस्तुति के कथ्य पर, उसके पक्ष-विपक्ष में, यदि चर्चा होने लगे तो समझिये प्रस्तुति अपने उद्येश्य में सफल है. किन्तु, इस समझ का एक गलीज पहलू भी है जो कि आज आम हो चला है. वह है, विवादित विषयों या विन्दुओं पर सपाट लेखनकर्म.
इसकी परिणति यह हुआ करती है कि प्रभावी समस्याओं के मूल विन्दुओं पर चर्चा ही नहीं हो पाती.
इस परिप्रेक्ष्य में यह सुखद है कि आदरणीया कल्पनाजी की प्रस्तुत कविता पर सार्थक चर्चा प्रारम्भ हुई है. भाई नीरज मिश्रा जी तथा आदरणीय विजय शंकरजी ने महत्त्वपूर्ण विन्दु उठाये हैं.
शिल्प के लिहाज से इस प्रस्तुति को अभी बहुत-बहुत मांजना है. कविता नारा नहीं होती. लेकिन वहीं कविता ज्वलंत मुद्दे भी उठाती अवश्य है. यहीं रचनाकारों से अपेक्षा होती है कि इन दोनों विन्दुओं के मध्य अपनी प्रस्तुतियों को संतुलित करे.
ऐसा कोई प्रयास निरंतरता के साथ दीर्घकालिक गहन अभ्यास मांगता है. कविता को कवितापन से विलग न होने देना रचनाकारों का महती दायित्व है. तभी कविताकर्म सफल माना जाता है.
इस प्रस्तुति के विन्दुओं के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीया कल्पनाजी.
शुभेच्छाएँ.
सुन्दर रचना
आप सभी महानुभावों को मेरा नमन /सादर
मै कोई तर्क नही दूँगी ................सुन्दर रचना
परमात्मा के प्रेम में स्त्रैण-चित्तता की जरूरत है।
प्रेम में ही स्त्रैण-चित्तता की जरूरत है।
पुरुष का प्रेम नाममात्र को प्रेम है।
प्रेम तो स्त्री का ही होता है।
पुरुष के लिए हजार कामों में प्रेम एक काम है।
स्त्री के लिए प्रेम ही बस एकमात्र काम है।
स्त्री के सब काम प्रेम से निकलते हैं।
वह खाना पकाएगी, बुहारी लगाएगी, तुम्हारे कपड़े पर बटन टांक देगी, तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी। उसका सारा काम…तुम्हारे बच्चे, उनकी देखभाल करेगी। तुम्हारे घर, तुम्हारे बगीचे को संवारेगी।
उसकी सारी चिंता उसके प्रेम से निकलती है।
उसका सारा काम उसके प्रेम से निकलता है।
.."ओशो"......
मै आपकी कविता को सोचता हूँ तो एक सवाल उठ ता है क्या शेरनी होने से स्त्री की समस्या हल हो जायेगी अपितु वो अपने स्वभाव को ही खो देगी कोमल ममता मयी करुणा मयी और ह्रदय से भरा उसका स्वभाव है और उसके इसी स्वभाव को पूजा है हमने। , हमने कहा महापुरुष पुरुषों के लिए अलग से कहाँ पड़ा और उन्ही को कहा जो स्त्रैण हो पाएं हैं कृष्ण या बुद्ध कहाँ से पुरुष लगते हैं इनका हर भाव कोई स्त्रैण भाव लिए हुए है , जब भी कोई प्रेम से भरता है स्त्रैण हो जाता है स्त्रियां सभी महान ही होती हैं ,परमात्मा की छाया जैसी हैं समझना तो पुरुष को पड़ेगा की वो स्त्रियों को उसके स्वभाव में रहने में उसकी मदद करे और स्त्रियां भी स्त्रियों का सम्मान करें ये सबसे ज़रूरी है एक लड़की पैदा होती है तो उसकी माँ ही उसकी उपेक्षा करती है और शादी के बाद उसकी सास ये समझने वाली चीजें हैं स्त्रियों की दुश्मन पुरुषों से ज्यादा स्त्रियां ही होती हैं स्त्री का स्वभाव है समर्पण में रहना और इस सवभाव में रहेगी तो शांत रहेगी स्वस्थ रहेगी आनंदित रहेगी और जैसे की गीता में कृष्ण कहते हैं अपने स्वधर्म में रहेगी ।
आपकी रचना पार बहुत बहुत शुभकानाऐं ।
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