आज पंद्रह अगस्त है, देश की स्वतंत्रता की याद दिलाने वाला एक राष्ट्रीय पर्व । एक ऐसा दिवस, जब स्कूल-कालेजों में मिठाई बंटती है, जिसका इंतजार बच्चों को रहता है – बच्चे जो अपने प्रधानाध्यापकों की उपदेशात्मक बातों के अर्थ और महत्त्व को शायद ही समझ पाते हों । एक ऐसा दिवस, जब सरकारी कार्यालयों-संस्थानों में शीर्षस्थ अधिकारी द्वारा अधीनस्थ मुलाजिमों को देश के प्रति उनके कर्तव्यों की याद दिलाई जाती है, गोया कि वे इतने नादान और नासमझ हों कि याद न दिलाने पर उचित आचरण और कर्तव्य-निर्वाह का उन्हें ध्यान ही न रहे । मैं आज तक नहीं समझ पाई कि लच्छेदार भाषा में आदर्शों की बातें क्या वाकई में किसी के दिल में गहरे उतरती है ? यह ऐसा दिवस है जिसकी पूर्वसंध्या पर राष्ट्रपति आम जनता को ‘उनकी भाषा’ में आशावाद का संचार करने वाली देश की लुभावनी तस्वीर पेश करते है । ऐसा दिवस, जब लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश को उन योजनाओं का संदेश देते हैं, जो आम जन को सुखद भविष्य का दिलासा देते हैं, लेकिन जिनका क्रियान्वयन महज कागजी बनकर रह जाता है, हकीकत से कोसों दूर । राष्ट्रीय स्तर के उन संबोधनों को सुनकर एकबारगी आम आदमी को भी यह लगने लगता है कि अब उसकी किस्मत बदलने वाली है, किंतु उसका मोहभंग होने में कोई देर नहीं लगती । लेकिन इस बार बच्चे बच्चे के मुंह से हमने सुना है कि ‘ अच्छे दिन आने वाले है’ !! देखते है कहाँ तक सच होता है । कितनी कृपा बरसेगी ।
पूर्व राष्ट्र पति मा0 ए पी जे कलाम के शब्दो मे – ‘अस्तु यह दिन है जश्न मनाने का, परस्पर बधाई देने का और देश के सफल भविष्य के सपने देखने का । मेरा भी कर्तव्य बनता है कि देश के नागरिकों को बधाई दूं और उनके सपनों के साकार होने की कामना करूं ।परंतु ऐसा करते समय दिल के कोने में शंका जगती है कि जो होना ही नहीं उसकी कामना करने का तुक ही क्या ? सवाल सिद्धांततः क्या हो सकता है का नहीं है; सवाल है कि परिस्थितियों की वास्तविकता किस संभावना की ओर संकेत करती है ? जो देश ‘स्वतंत्रता’ के माने भूल चुका हो, जहां स्वतंत्रता के अर्थ स्वच्छंदता, निरंकुशता, अनुशासनहीनता, उच्छृंखता, मनमरजी, और न जाने क्या-क्या लिया जाने लगा हो, वहां क्या और कितनी उम्मींद की जा सकती है ?’
इस पर्व के प्रति मैं हमेशा ही बहुत उत्साहित रही हूँ । किंतु पिछले कुछ वर्षों से उत्साह नाम की चीज ही गायब हो चुकी है । मेरे लिए यह अन्य आम दिनों की तरह एक साधारण दिन बनकर रह गया है, क्योंकि यह अपनी अर्थवत्ता खो चुका है । चूंकि स ड़सठ साल पहले जो परंपरा चल पड़ी, सो उसे हम सब अब बस निभाते चले आ रहे हैं । आगे भी निभाएंगे, परंतु कोई मकसद रह नहीं गया है ऐसा मुझे लगने लगा है । शायद मेरी आंखें ही धुंधली हो चुकी हैं कि मुझे मकसद दिखता नहीं ! मैं इस दिवस को दीपावली/ईद आदि जैसे धार्मिक उत्सव अथवा नानकजयंती/बुद्धपूर्णिमा आदि की तरह स्मरणीय दिवस के रूप में नहीं देख पा रही हूँ , कारण भी स्पष्ट ही है आए दिन होने वाले बलात्कार , महिलाओं का शोषण , भ्रष्टाचार के तहत दबा दिये जाने वाले तमाम मुकदमे जिनका हल आज तक नहीं निकल पाया है , बढ़ रहा आतंक वाद , लोगो मे बढ़ती संवेदन शून्यता मुझे अंतर तक झकझोरती है । मेरी दृष्टि में ‘स्वतंत्रता दिवस’ और ‘गणतंत्र दिवस’ मिठाई बांटकर तथा भाषण के कुछ शब्द सुनाकर और ‘जन गण …’ के बोल गाकर रस्मअदायगी हेतु मनाये जाने के लिए नहीं है । मेरी नजर में तो ये दिन वैयक्तिक स्तर पर आत्म-चिंतन और दायित्व-निर्वाह के आकलन के लिए हैं और सामूहिक तथा सामुदायिक स्तर पर यह जांचने-परखने के लिए हैं कि देश कहां जा रहा है, हमारा शासनतंत्र आम आदमी की आकांक्षाओं की पूर्ति कर पा रहा है क्या, हमारी प्राथमिकताएं समाज के सबसे निचले तबके के हितों से जुड़ी हैं क्या ? आदि आदि ।
इस विषय पर गंभीरता से समीक्षा की जाए तो लगता है कि बस देश चल रहा है, भगवान् भरोसे । संतोष करने को कम और चिंतित होने के लिए बहुत कुछ दिखाई देता है । स्वाधीनता-संघर्ष में जिन्होंने देश के प्रति बहुत कुछ न्यौछावर किया, जीवन दांव पर लगाया, सुख-सुविधाएं त्यागीं, उन्होंने स्वतंत्र राष्ट्र की जो तस्वीर खींची वह, मुझे लगता है, कहीं मिट गयी और उसकी जगह उभर आयी एकदम अलग और निराशाप्रद तस्वीर । देश चलाने वालों ने उन मूल समस्याओं की ही अनदेखी कर दी, जिन पर प्राथमिकता के आधार पर विचार होना चाहिए था । क्या हैं वे समस्याएं जो मेरी नजर में माने रखती हैं ? उनकी सूची प्रस्तुत करने से पहले यह टिप्पणी कर लूं कि आज दुर्योग से देश अनायास एक नहीं, दो नहीं, कई-कई आपदाओं से घिरा है । तथाकथित आतंकवाद से तो देश लंबे अरसे से जूझ ही रहा है । उसके साथ ही तमाम अन्य घटनाएं भी आज देश को आतंकित कर रही हैं । नक्सलवाद खतरनाक रूप लेने की तैयारी में है । उसके ऊपर से इस बार की विकट अनावृष्टि अपना कहर ढा रही है, जिससे कृषि-उपज तो प्रभावित होनी है । पानी का अकाल सन्निकिट है, क्योंकि भूजल स्तर खतरनाक हालत को पहुंच रहा है । रही सही कसर ‘स्वाइन फ्लू’ का प्रकोप पूरा कर रहा है । देश क नौजवान बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर हैं । समाज के एक बहुत बड़े किंतु तिरस्कृत तबके को भरपेट भोजन तक नसीब नहीं, उनके जीवन की अन्य आवश्यकताओं की बात करना ही फिजूल है । अमीर और गरीब के बीच की आर्थिक खाई निरंतर बढ़ रही है, जो देर-सबेर विकराल सामाजिक संघर्ष का रूप धारण कर सकती है । वस्तुतः ‘छिद्रेषु अनर्था बहुलीभवन्ति’ की उक्ति मौजूदा हालात पर लागू होती है । तब जश्न मनाने के हालात कहां हैं ? मेरा इरादा उन कुछएक समस्याओं का जिक्र करना है, जिन्हें अरसे से नजरअंदाज किया जा रहा है, जब कि उनका त्वरित समाधान खोजा जाना चाहिए ।
अप्रकाशित एवं मौलिक
---अन्नपूर्णा बाजपेई
Comment
आदरणीय सौरभ जी बहुत अच्छा लगा रहा है आपने मेरे आलेख को पढ़ा और अंतर्निहित भावों को समझा और अन्य लोगों को भी पढ़ने के लिए आग्रह किया । आपकी टिप्पणी स्वतः ही मेरा व मेरे आलेख का मान बढ़ा रही है । आपका वरद हस्त यूं ही बना रहे । मैं आपकी हृदय से आभारी हूँ ।
प्रिय जितेंद्र जी , कल्पना जी लेख को पढ़ कर मान देने के लिए हार्दिक आभार ॥
आदरणीया अन्नपूर्णाजी, आपके इस लेख के माध्यम से आपकी गंभीर, सार्थक, सटीक सोच से दो-चार हो रहा हूँ.
भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आज़ाद के उद्धरण को प्रस्तुत कर आपने अपने लेख को विन्दुवत तथा गरिमामय बना दिया है.
आदरणीया, आपने अत्यंत ज्वलंत मुद्दे उठाये हैं जिसके लिए आपके प्रति सादर भाव रखते हुए अन्यान्य सदस्यों को भी इस लेख को पढ़ने का आग्रह करता हूँ.
इस सचेत भावाभिव्यक्ति के लिए सादर आभार
सही कहा है दी आप ने ............... बहुत बड़ाई आपको /सादर
आपका आलेख सराहनीय है आदरणीया अन्नपूर्णा दीदी. न जाने कब तक यह समस्याएं केंद्र बिंदु बनी रहेगी..? जबकि आज देश को आजाद हुए इतना समय बीत गया. बधाई स्वीकारें
अ0 गोपाल नारायन जी अपने लेख को पढ़ा और मर्म को समझा आपका हार्दिक आभार ।
अन्नपूर्ण जी
बहुत सुन्दर आलेख है i आपने प्रासंगिक समस्याए उथौई i समाज को उनके उत्तर खोजने होंगे i
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