For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा
चारों तरफ.. .  
उजाले काटते हैं / छलते है !
लगता है अब डर
उजालें से
दिखती हैं जब
अपनी ही परछाई -
छोटी से बड़ी
बड़ी से विशालकाय होती हुई.
भयभीत हो जाती हूँ !
मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,
ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !
जब होगा अँधेरा चारों ओर
नहीं दिखेगा
आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.
फिर तो मन की आँखें
स्वतः खुल जाएँगी !
देख सकेंगे फिर सभी...
/ और मैं भी /
दिल की सच्चाई !

............

सविता मिश्रा

"मौलिक व अप्रकाशित"

Views: 760

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by savitamishra on August 26, 2014 at 12:10pm

आदरणीय सौरभ भैया शायद ख़ास और आम में हमसे ही चुक हुई ...यूँ ही अपनी ख़ास उपस्थिति दर्ज करा मार्ग प्रसस्त करतें रहिये ......दुबारा पढ़ हम समझने की कोशिश करते है ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 26, 2014 at 12:40am

आप पंक्तियों को ध्यान से पढ़ें और प्रस्तुत हुए संशोधनों की सार्थकता को हृदयंगम करें.

सब स्पष्ट होता जायेगा. 

Comment by savitamishra on August 25, 2014 at 11:53pm

ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व ! आदरणीय सौरभ भैया अभी अपने ब्लॉग पर यही रचना डाले थे तो अभी पढ़े की आपने यहाँ 'मेरा' लिखा जबकि शायद 'इसका अस्तित्व' होना चाहिए या हम गलत है ..कृपया भ्रम दूर करने का एक बार पुनः कष्ट करें

Comment by savitamishra on August 23, 2014 at 9:45pm

aapki tippadi ke liy bahut bahut abhar thedil se meena sis apka ...

Comment by Meena Pathak on August 23, 2014 at 1:58pm

क्या बात है ..बहुत सुन्दर बात कही आपने अपनी रचना के मध्याम से ..बहुत बहुत बधाई 

Comment by savitamishra on August 23, 2014 at 10:28am

आदरणीय सौरभ भैया इसे कहते है शिल्पगत हुनरबाज का कमाल

तराश कर आपने कंकड़ को कीमती पत्थर बना दिया है. जड़ लेते हैं हम अब इसे पोस्ट के जरिये अपने पेज पर  .........बहुत बहुत आभार  भैया आपका सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 22, 2014 at 10:00pm

हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा
चारों तरफ.. .  
उजाले काटते हैं / छलते है !
लगता है अब डर
उजालें से
दिखती हैं जब
अपनी ही परछाई -
छोटी से बड़ी
बड़ी से विशालकाय होती हुई.
भयभीत हो जाती हूँ !
मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,
ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !
जब होगा अँधेरा चारों ओर
नहीं दिखेगा
आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.
फिर तो मन की आँखें
स्वतः खुल जाएँगी !
देख सकेंगे फिर सभी...
/ और मैं भी /
दिल की सच्चाई !

---

Comment by savitamishra on August 22, 2014 at 9:24pm

हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा..
चारों तरफ....  .
उजाले ...
काटते हैं
,छलते है !
लगता है
अब..
उजालें से डर!

दिखती हैं जब..
अपनी ही परछाई!
भयभीत हो जाती हूँ !
देख छोटी से बड़ी..
बड़ी से विशालकाय ..
होती  !
मेरी ही परछाई मुझे !
डंसने ना लगे..
ख़त्म कर दें ..
इसका अस्तित्व !
जब होगा ....
अँधेरा
चहुँओर !
नहीं दिखेगा...

आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि..
हाथ को
हाथ ...
नहीं सूझेगा तो !

मन की आँखे..
स्वतः खुल जाएँगी !
मन की आँखों से !
देख सकेंगे ...
दिल की सच्चाई

फिर...
ख़त्म हो जाएँगी..

सारी की सारी बुराइयां !
हे प्रभु सुन !
कर दें
अँधेरा ...
चारों तरफ..
अँधेरे में रह ही ...
शायद उजाले की ..
असली कीमत ..
समझ आएगी|....सविता मिश्रा

क्या थोड़ी सही हुई अब इसकी प्रस्तुति ..कुछ शब्द हटा भी दिए

Comment by savitamishra on August 22, 2014 at 9:04pm

सादर नमस्ते आदरणीय लक्ष्मण चाचाजी ....सादर आभार आपका ..शुक्रगुजार है हम आपके, आपकी बधाई को पाकर प्रसन्नता हुई

Comment by savitamishra on August 22, 2014 at 9:02pm

आदरणीय विजय चाचाजी सादर नमस्ते ....दिल की गहराइयों से आपका आभार व्यक्त करते हैं हम ..बहुत बहुत धन्यवाद अपनी उपस्तिथि दर्ज करने के लिय :)

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Apr 28
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Apr 28
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service