अपनी आबरू बेच जब
हाथ में नोट आया
लड़की ने नोट पर
अंकित गांधी के चित्र पर
अपनी बेबस नजरों को गड़ाया
गांधी बहुत ही शर्मिंदा हुए
अपनी खुद की नजरों को
जमीं में गड़ता पाया
नहीं मिला पायें नजर
आंसुओं से डबडबाई नजरों से
देश के हालत पर चीत्कार से उठे
पर सुनता कौन|
आग पेट की बुझाने
के खातिर एक औरत
अपनी ही औलाद जब
मजबूर हुई बेचने को
बेचने के उपरांत जो
नोट हाथों में लिया
उसने भी गांधी को घूरा
खूब आंसू बहाया
पर मजबूर थे गांधी भी
नजरें ना मिला सकें
औरत ने तोड़-मरोड़
नोट को ठूंस लिया
अपने ही सीने में सिसकते हुए
उसी सीनें से जिसमें
अब तक उसका लाल
छुप जाया करता था
पेट की आग बुझाने के खातिर|
मेहनत मजदूरी करते
धर दिया ठेकेदार ने
चंद नोट शाम को हाथ
मेहनताने स्वरूप
गांधी छपे उन नोटों को देख
मजदूर व्यंग में मुस्काया
और मन ही मन बोला
वाह रे गांधी क्या तुमने
भविष्य हमारा इसी में देखा था
तू आज उतार दें अपना ऐनक
क्योकि ऐनक में हमें तेरा
दोगलापन नजर आता है
तू खुद गरीबी का चोला ओढ़
हम गरीबों को मुहं चिढ़ाता हैं और
अमीरों के घर लाखों-करोड़ों की
नोटों में पा खुद को
हँसता-खिलखिलाता हैं|
दस साल के एक नौनिहाल की
फीस रूप में चंद गांधी नोटों को
ना दे पाने की वजह से
जब रुक जाती हैं पढ़ाई उसकी
फीस के चंद टुकड़े भरने के लिए
दर-दर भटकना पड़ता हैं उसे
भटकने के उपरान्त जब
बीस-पचास के नोट हाथ आते हैं
देख मुस्काता तेरा चेहरा
लगता है उड़ा रहा हैं खिल्ली
तू विदेश से पढ़ लौटा और हमें
सड़े-गले सरकारी स्कूल में भी
चंद गांधी धारी नोट
ना होने की वजह से
ठीक ढंग से पढ़ने को भी नहीं मिलता
वाह रे गांधी क्या यही सपना
हम नौनिहालों के लिय था तूने देखा|
महंगाई के सुरसा रूपी मुहं में
अब कोई कीमत ही नहीं रह गयी
सौ-पचास के नोटों की
तू फिर भी गर्व से छपा हैं उसमें
ऐसा लगता हैं खुद ही शर्मिंदा हैं
इस बढ़ती हुई महंगाई पर
और मुहं छुपा लेना चाहता हैं
सौ-पचास के मुड़े-तूड़े नोटों के बीच
खुद ही बाहर नहीं आना चाहता
कोसता रहता हैं खुद की ही तक़दीर को
भिचा हुआ किसी गरीब की मुट्ठी में रह|
अच्छा हुआ तूनें सिक्कों में
खुद को नहीं छपने दिया
उस पर भारत का गौरव छपा हैं
और किसी पर किसान का प्रतीक
वर्ना और भी शर्मिंदा होता
भिखमंगों के कटोरे में देख
नजरें ना मिला पाता
तब खुद से ही|
पर जब किसी पर्स से सिक्के निकल
गरीब के कटोरे में जाते होगें
कनखियों से उनकी गत
और भारत के गौरव को
गरीबों के कटोरे में खनखनाता देख
यकीं हैं हमें और भी शर्मिंदा होता होगा
सोचता होगा काश मैं सिक्के पर ही होता
नोटों पर भारत का गौरव होता
कम से कम हमारे देश में गौरव को
इतना तो शर्मिंदा ना होना होता|
मेरी उलाहोनों को सुन कर गांधी
बहुत ही शर्मिंदा हुए और बोले
हो सकें तो मेरी आवाज उप्पर तक पहुंचा दो
नोटों के बजाय मुझे सिक्के में ही ढलवा दो| सविता मिश्रा
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
महिमा sis दिल से शुक्रिया आपका ...आपकी सलाह का पालन अवश्य करतें हम पर अभी हमें सही से कविता लिखना ही नहीं आता तो व्यंग में इसे तब्दील करना तो दूर की बात रही .....भाव आये लिख गये ...व्यंग वाले आते तो शायद लिख जाते पर अफ़सोस ....फिर भी आपका धन्यवाद दिल से इस नेक सलाह के लिय
आदरणीय विजय भैया सादर नमस्ते .....बहुत बहुत आभार भैया आपका
बहुत गंभीरता है रचना में .. बात हम तक आ रही है ..पर इसे व्यंगकथानक में कन्वर्ट कर सकती है ..तो ज्यादा रोचक बन पड़ता .. ये मेरा विचार है .. अन्यथा ना लें हार्दिक बधाई प्रयास पर
आदरणीय गोपाल चाचाजी सादर नमस्ते..कोशिश करेगें हम
सविता जी
आपने जो समझा है वह किसी सीमा तक सही है i भाव गहन और कसे होने चाहिए i रचना छोटी हो कोई गम नहीं i
सादर i
जितेन्द्र भाई आपको अच्छी लगी दिल से धन्यवाद आपका ...अपनी राय से यूँ ही अवगत कराते रहें
आदरणीय सौरभ भैया सादर नमस्ते .........शुक्रिया भैया आपका
बहुत ही अच्छी लगी आपकी रचना. कुछ अलग सी. सच! विवशता कह लो या जीवन को निरंतर बनाये रखना. हार्दिक बधाई आपको
आदरणीया सविताजी, आपकी प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.
कविता के प्रस्तुतीकरण को लेकर मैं आदरणीय गोपाल नारायनजी के कहे से सहमत हूँ.
शुभेच्छाएँ.
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