१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
करेंगे होम ही, लेकर सभी आसार बैठे हैं
जिगर वाले जला के हाथ फिर तैयार बैठे हैं
ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं
जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं
बहारों से कहो जाकर ग़लत तक़सीम है उनकी
कोई खुशहाल दिखता है , बहुत बेज़ार बैठे हैं
समझते हैं तेरे हर पैंतरे , गो कुछ नहीं कहते
तेरे जैसे अभी तो सैकड़ों हुशियार बैठे हैं
तुम्हें ये धूप की गर्मी नहीं लगती यूँ ही मद्धिम
तपिश के सामने हम हैं , बने दीवार बैठे हैं
कभी सैलाब ने धोया , कभी सूखा सताता है
हमें बरबाद करने को बहुत से यार बैठे हैं
ये अपने घर का मस्ला है, इसे छोड़ो, कहीं रख दो
अभी तो मुल्क के दुश्मन लगे तैयार बैठे हैं
बहुत मायूस होने की ज़रूरत है नहीं साक़ी
क़तारों में अभी सौ - सौ तेरे बीमार बैठे हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीया सविता जी , सरहाना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरनीय रवि भाई , आपकी सराहना से मेरा उत्साह दोगुना हो गया । उत्साह वर्ध न के लिये आपका आभारी हूँ ।
/तपिश के सामने हम हैं , बने दीवार बैठे हैं / -- मै इस तरह अपनी बात को दो स्तर मे पूरी करने का प्रयास किया हूँ ।
1 - तपिश कम लगने का कारण कौन है -- वो हम हैं
2- तपिश कैसे कम कर रहे हैं ----- दीवार बन के बैठ के
फिर भी अगर ये बात आप जैसे प्रबुद्ध पाठक तक नही पहुँचा पाया तो इसे मै अपनी ही ग़लती मानता हूँ ,
मै इस मिसरे मे सुधार कर लूंगा ---- तपिश के सामने हम जो बने दीवार बैठे हैं --- ऐसा कहूँ तो कैसा रहेगा ?
आदरणीय संत लाल भाई , आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय नरेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार
आदरणीया राजेश जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल को आपका आशीर्वाद मिला , कहना सफल हुआ , आपका हार्दिक आभार ।
ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं
जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं ...बहुत खुबसुरत भैया _/\_
आदरणीय गिरीराज भंडारी जी,
क्या खूब ग़ज़ल कहीं आपने, मजा ही आ गया। जितनी बार भी गुनगुनाया उतनी बार ही बस वाह-वाह ही निकली। एक सफल प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। यदि आप एक संशय निवारण कर दें तो आपका बहुत उपकार होगा:
/तपिश के सामने हम हैं , बने दीवार बैठे हैं /
इसमें मुझे पहले वाला ‘हैं’ शब्द थोड़ा अखर रहा हूँ। मैं स्पष्ट कर दूं कि ग़ज़ल के बारे में मुझे बिल्कुल भी जानकारी नहीं है और आप सरीखे वरिष्ठ साहित्यकार से इस तरह का सवाल करना शायद मेरा दुस्साहस ही है। उम्मीद है कि आप निराश नहीं करेंगे। सादर ।
आदरणीय भंडारी जी,
नवीन किन्तु सामयिक भावबोध की बहुत अच्छी ग़ज़ल, साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
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