२१२२ २१२२ २१२२ २१२
वो कहें सागर में मिलकर आज दरिया खो गया
हम कहें सागर से दरिया मिल के सागर हो गया
सोच कुछ तेरी जुदा है सोच कुछ मेरी अलग
सोचिये सोचों का अंतर आज कैसा हो गया
करते दंगों पे सियासत रहनुमा इस देश के
देख कर अपनों की लाशें नन्हा बचपन रो गया
दर्द पहले ही हज़ारों जिन्दगी में दोस्तों
फिर नया ये दर्द क्यूँ जग जिन्दगी में बो गया
माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही
चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया
दर्द जब जब भी बढा है दिल हुआ बेचैन है
ढाल शेरो में ग़मों को दिल ये ग़ज़लें पो गया
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बेहतरीन प्रस्तुती बहुत -२ बधाई आपको
धन्यवाद पवन जी ..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति .....
मार्मिक भाव झलकता है.....
सादर बधाई स्वीकारें...
आदरणीय सर ..आप सभी का स्नेह और मार्गदर्शन ही कुछ नूतन लिखने की सदैव उर्जा प्रदान करता है सादर धन्यवाद के साथ
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