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पृथ्वी की धुरी के इशारों पर

यूं तो नाचता है समय...

विस्मृत क्षण हो गए धूमिल

कई दिनों से गुम था समय...

कितने ही वर्षों से ढूंढता

पूछता था जिससे वो कहता

“मेरे पास तो नहीं है समय...”

समय को खोजते खोजते

अपने प्रियजनों के हृदय की

सीमा को भी लांघ गया...

कहीं भी ना मिला समय....

हार के लौटा घर में,

आश्चर्यचकित फिर हुआ मैं !!

समय तो मेरी मुट्ठी में सिकुड़ा था

मेरे परिवार के हर सदस्य से

मिलने को आतुर था – मेरा समय ||

 

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 30, 2014 at 11:30am

आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी, बधाई हेतु आपका हार्दिक आभार |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 29, 2014 at 12:20pm

चंद्रेश जी

समय की कमी का रोना और समय का सदुपयोग करना  एक दुसरे से अलग है i आपकी अभिव्यक्ति इस सत्य को रेखांकित करती है i

Comment by MAHIMA SHREE on August 28, 2014 at 9:45pm

बहुत ही सुंदर कविता ..हार्दिक बधाई 

Comment by Pawan Kumar on August 28, 2014 at 5:27pm

sundar prasuti ke liye hardik badhai .....

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 28, 2014 at 10:10am
बहुत सुन्दर आदरणीय चंद्रेश कुमार जी , रचना के लिए बधाई .

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