अस्मिता इस देश की हिन्दी हुई
किन्तु कैसे हो सकी
यह जान लो !!
कब कहाँ किसने कहा सम्मान में..
प्रेरणा लो,
उक्तियों की तान लो !
कंठ सक्षम था
सदा व्यवहार में
स्वर कभी गूँगा नहीं था..
भान था.
इच्छितों की चाह में
संदर्भ थे
दर्द में
पारस्परिक सम्मान था
भाव कैसे रूढ़ियों में बोलता ?
शक्त-संवेदन मुखर था,
मान लो !
शब्द गढ़ती
भावनाएँ उग सकीं
अंकुरण को
भूमि का विश्वास था
फिर, सभी की चाहना
मानक बनी
इंगितों को
जी रहा इतिहास था
ऐतिहासिक मांग थी,
संयोग था..
’भारती’ के भाव का भी
ज्ञान लो !!
साथ संस्कृत-फारसी-अरबी लिये
लोक-भाषा
शब्द व्यापक ले कढ़ी
था चकित करता हुआ
वह दौर भी
एक भाषा
लोक-जिह्वा पर चढ़ी
हो गया व्यवहार
सीमाहीन जब
जन्म हिन्दी का हुआ था,
मान लो
देश था परतंत्र,
चुप था बोल से
नागरिक-अधिकार हित
ज्वाला जली
मूकजन हिन्दी लिये जिह्वाग्र पर
’मातरम वन्दे’ कहें,
आँधी चली !
देश को तब जोड़ती हिन्दी रही
ले सको
उस ओज का
अम्लान लो !
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--सौरभ
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ भाईजी,
इस नवगीत पर मेरी टिप्पणी लम्बी होती गई 5 ,10, 20 ,30 पंक्तियाँ और उससे भी ज़्यादा। अंत में मुझे लगा कि हिंदी पखवाड़े पर क्यों न इसे एक लेख का रूप दिया जाय । धन्यवाद भाईजी यह नवगीत मेरे लिए प्रेरणादायी है। कुछ देर पहले ही लेख पोस्ट किया था अभी-अभी पता लगा कि मौलिक अप्रकाशित शब्द लिखना भूल गया हूँ अतः पुनः पोस्ट कर रहा हूँ।
इस नवगीत पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें, अच्छी जानकारियाँ मिली।
आदरणीय सौरभ जी सुन्दर सारगर्भित कथ्य। ये सच है कि अस्मिता को बचाये रखना कितना कठिन हो गया है दूसरे देश जो हमारे यहाँ पैसा निवेश कर रहे हैं उनका मान तो रखना ही होगा। यही कारण है कि पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग बन गयी हैं विदेशी भाषाएँ। ऐसे में हिंदी और हिन्दीप्रेमियों को भी जतन करना हो रहा है .बहुत बहुत साधुवाद आपको इस रचना के लिए. प्रणाम।
" अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................. " |
आदरणीय सौरभ सर ..आपने अपनी इन चंद पंक्तियों के माध्यम से हिन्दी के उद्भव से वर्तमान परिदृश्य तक हिंदी की स्थिति , हिंदी के प्रति हमारे दायित्वों की इशारा किया है वो काबिले तारीफ़ है ..अभी आपकी इस रचना से पहले विजय सर की छानिकाए पडीं ..जिसमे समसयाओ के हल ढूँढने की तरफ इशारा था सिर्फ लिखने से समस्याओं के निदान की बात नहीं थी ..आपकी रचना पढ़कर लगा आप अपनी रचना के माध्यम से हिंदी के प्रति जिस स्नहे को व्यक्त कर रहे हैं उससे ज्यादा आपन इस मंच के माध्यम से हिंदी के उन्नयन में सतत प्रयत्नशील हैं ..आज आप जैसे बिद्वानो की बजह से यह मंच लाखों लाखो पाठकों को हिंदी की तरफ आकर्षित कर रहे हाँ ..पुरानी बिधाएं जो लुप्त प्राय हो चुकी थी उनको फिर से जीवित कर रहा है यह मंच ..मंच से जुड़े कार्यकारिणी के बिद्वत जन ..कर्म में लिप्त होकर कर्म का संदेश देने के आपके इस प्रयास का दिल की अनंत गहरायिओं से वंदन करता हूँ सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय सौरभ भाई ,आपकी इस रचना ने हिन्दी प्रेमियों को बहुत बड़ा मैदान दिया विचार रखने के लिए , आपकी रचना सैकड़ों वर्षों के इतिहास से लेकर वर्तमान तक की बात कह रही है , सभी प्रबुद्ध पाठक के विचार पढ़ा ज्ञान अर्जन भी हुआ और हिन्दी के प्रति सभी के मन का प्रेम और प्रसार प्रचार की चिंता भी नज़र आयी |
मेरा मानना है जिस प्रकार हम सांस के लेने के लिए अलग से कोई प्रयास नहीं करते , वो बस स्वाभाविक रूप से चलते रहती है , और चूंकि साँस लेने की प्रक्रिया स्वाभाविक होती है हम सांस लेते हुए अन्य सभी काम भी कर लेते हैं , किसी भी काम को करने के लिए हमें सांस लेना छोड़ना नहीं पड़ता | बस वैसे ही हम हिन्दी अपना लें , किसी भी अन्य भाषा को कम करने की , छोड़ने की ज़रूरत नहीं है , हमारी साँसे हिन्दी हों बस |
मुझे भय और चिढ अंग्रेजियत से है , अंगरेजी भाषा से नहीं | और मुझे दुःख है कि आज अंग्रेजियत उच्च और मध्य उच्च वर्गीय परिवार में हावी है , ये उनकी संस्कृति का हिस्सा होते जारहे हैं | भारतीय संकृति अपमानित है | बचना और बचाना है हमें उस छै महीने के बच्चे को जिससे उसके माता पिता अंगरेजी में बात करते हैं, जो अभी किसी भाषा का ज्ञान भी नहीं रखता , उसे उसकी सांस में अंग्रेजियत पिलाई जारही है | यही हमारी भारतीयता और हमारी भाषा के पतन का कारण न बन जाएँ |
अंत में आपके इस नव गीत को और नीचे की टिपण्णी में कही आपकी इस बात को समर्थन और नमन --
हम हिन्दी भाषी हिन्दी को जिस दिन मात्र भाषा मानना बन्द कर, इसे अपनी अस्मिता का प्रश्न बना देंगे, उसी दिन यह भाषा अपने नये रंग में आजायेगी. परन्तु, उसके पहले हम हिन्दीभाषियों को अपने वैचारिक दोगलेपन से बाहर आना होगा. अंग्रेज़ी जानना एक बात है और अंग्रेज़ी के प्रयोग को अपनी शान समझना या सामाजिक रूप से अपने को उच्च होने का पर्याय मानना निहायत दूसरी बात ही नहीं, घटिया बात है. .
आदरणीय भाई जवाहरलालजी, आपने इस प्रस्तुति को एक पाठक के तौर पर जो मान दिया है उसके लिए हार्दिक धन्यवाद.
सहयोग बना रहे भाईजी.
आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी ऐसी विशद टिप्पणी से मेरा मन न केवल तृप्त हुआ है बल्कि आत्मीय संतोष भी हो रहा है कि आपको मेरा प्रयास रुचिकर लगा है. आपकी इस भूरि-भूरि प्रशंसा को मैं किस तरह स्वीकारूँ !
सादर आभार आदरणीय
आदरणीया राजेश कुमारीजी, इस उद्धरण के माध्यम से आपने कई बातों को साझा किया है. यह आपके संवेदनशील ही नहीं जागरुक मनस का भी परिचायक है.
आदरणीया, कई अ-हिन्दीभाषी राज्य हिन्दी के साथ दोयम दर्ज़े का व्यवहार यों ही नहीं करते. इसके माकूल कारण भी हैं. उन राज्यों का बना होना उन राज्यों में बोली जाने वाली भाषा नियत करती है. अतः राजनैतिक पार्टियाँ अपना ’काम’ करती हैं. अलबत्ता, एक या दो राज्यों को छोड़ दिया जाय तो आम जन खूब हिन्दी समझता और अपने अंदाज़ में प्रयोग करता है.
मैं ऐसा इसलिये भी कह पा रहा हूँ कि पूर्व के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो मैं अमूमन सभी राज्यों में या तो अच्छा खासा समय गुजार चुका हूँ या वहाँ रह चुका हूँ. आमजन हिन्दी का विरोध नहीं करते बल्कि उन्हें इस भाषा से खूब लगाव है. लोग बातचीत के क्रम में हिन्दी भाषा के प्रचलित शब्दों को अपने कथ्य में आकर्षक वाक्यांशों की तरह प्रयुक्त करते हैं, जैसे, बाप रे ! मार डाला ! मेरी बात सुनो ! ए मैन, कैसा है ! ठीक-ठाक ! आदि-आदि.. मैं तमिळनाडु की बात भी कर रहा हूँ, जहाँ हिन्दी-विरोध का लम्बा इतिहास रहा है. परन्तु, वहीं उसी राज्य में सेलम, रामेश्वरम, कन्याकुमारी आदि भी हैं जहाँ आप मस्त होके हिन्दी बोलिये ! या फिर, उसी चेन्नै में साहुकारपेट नाम का भरा-पूरा बहुत बड़ा इलाका है, या, शहर के मुख्य माउण्ट रोड पर रिची स्ट्रीट है, जहाँ खूब हिन्दी बोली और समझी जाती है.
खैर..
आपको प्रस्तुत रचना प्रभावित कर पायी, इसके लिए सादर धन्यवाद, आदरणीया
शुभ-शुभ
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