२१२२/ २१२२/२१२२/२१२
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जाने कितने ग़म उठाता हूँ ख़ुशी के नाम पर,
ज़हर मै पीता रहा हूँ तिश्नगी के नाम पर.
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ऐ सिकंदर!! जंग तूने जो लड़ी, कुछ भी नहीं,
जंग तो मै लड़ रहा हूँ ज़िन्दगी के नाम पर.
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अधखिली कलियों की बू ख़ुद लूटता है बागबाँ,
शर्म सी आने लगी है आदमी के नाम पर.
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शुक्रिया उस शख्स का जिसने बना डाली शराब,
दिल की बाते लब से निकली बेख़ुदी के नाम पर.
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आँखे अपनी भेज कर कुछ बादलो की शक्ल में,
इक समंदर रो पड़ा सूखी नदी के नाम पर.
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ज़ह्नो दिल पर चढ़ रहा है इक कसैला ज़ायका,
गो निंबोली चख रहे हों दोस्ती के नाम पर.
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निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. राम शिरोमणि पाठक जी ...दिल से
शुक्रिया आ. डॉ. गोपाल नारायण जी .... आपने इतनी दाद दी है कि शुक्रिया हमने के लिए मेरे शब्द भी बौने पड़ गए हैं ..
बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
धन्यवाद आ. शिज्जू भाई ..ग़ज़ल आपको पसंद आई ये जानकर हौसला मिला ..
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद आ. वंदना जी
हर बंद कमाल का। साधुवाद 'नूर' साहब
आँखे अपनी भेज कर कुछ बादलो की शक्ल में,
इक समंदर रो पड़ा सूखी नदी के नाम पर.
बहुत सुंदर बात है, नीलेश जी बधाई !
.वाह क्या बात है ,,,,,,,,,,,,,
खूबसूरत गजल के लिए आपको हार्दिक बधाई, सादर
आदरणीय नीलेश भाई , बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है , पूरी ग़ज़ल के लिए बधाइयाँ |
ऐ सिकंदर!! जंग तूने जो लड़ी, कुछ भी नहीं,
जंग तो मै लड़ रहा हूँ ज़िन्दगी के नाम पर.............वाह क्या बात है
शुक्रिया उस शख्स का जिसने बना डाली शराब,
दिल की बाते लब से निकली बेख़ुदी के नाम पर....क्या खोज है बेहतरीन
आँखे अपनी भेज कर कुछ बादलो की शक्ल में,
इक समंदर रो पड़ा सूखी नदी के नाम पर.,,,,बेहद पसंद आया ...आदरणीय नूर जी ..कमाल की इस ग़ज़ल पर मेरी तरफ से ढेरों बधाई आपको सादर
अधखिली कलियों की बू ख़ुद लूटता है बागबाँ,
शर्म सी आने लगी है आदमी के नाम पर.......................वाह बहुत सुंदर अहसास , खूबसूरत गजल के लिए आपको हार्दिक बधाई, सादर
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