काशी की दुनिया हो
या काबा की बस्ती हो
यूँ ही न उजड़े चाहे
फ़कीर बाबा की बस्ती हो।।
साहिल से बिछड़ी हुई
मुक़ाम-ए-पास हो जाए
लहरों में फँसती चाहे
केवट की कश्ती हो।।
शोहरत की मस्ती हो
या माले की हस्ती हो
यूँ ही न टूटे कोई चाहे
मुफ़लिसी में घरबां गिरस्ती हो।।
मातहतों की मस्ती हो
या निगाहबां की गस्ती हो
हो सके न हावी कभी चाहे
मेरे अहबाब की नारास्ती हो।। .... (नारास्ती-कपटता)
विश्वासों की छाया हो
आशुफ़्ता की सख्ती हो ..... (आशुफ़्ता-भ्रमित)
खड़ा मुसाफिर भीगे न जब
रिश्तों की छतनार दरख्ती हो।।
थाम ले मौला उन्हें
कुछ अपना समझकर
ज़मीर से भटके हों चाहे
कीमत गिरेबां की सस्ती हो।।
यूँ ही न उजड़े चाहे
फ़कीर बाबा की बस्ती हो...
.@आनन्द
"मौलिक व अप्रकाशित
06-09-2014
Comment
बहुत सुंदर ..बधाई आपको
प्रोत्साहन हेतु हृदयतल से आभार !
सुन्दर रचना के लिए हार्दिक साधुवाद !!
आ. आनंद मूर्ती जी,
एक अलग अनुभूति मिली आपकी
समरस भावना से पूर्ण नज्म पढकर
सादर बधाई आपको
आदरणीय आनंद मूर्ती जी,
इस समरसता की भावना से परिपूर्ण खूबसूरत नज्म के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --
"शोहरत की मस्ती हो
या माले की हस्ती हो
यूँ ही न टूटे कोई चाहे
मुफ़लिसी में घरबां गिरस्ती हो।।"
सुंदर भाव रचना प्रस्तुति के लिए बधाई श्री आनंद मूर्ति जी
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति भईया ... सादर बधाई !
" अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................. " |
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