आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन
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२१२२ २१२२ २१२२ २१२
आदमी में जानवर भी जी रहा है फ़ित्रतन
आदमी में आदमी को देखना है इक चलन
साजिशें रचतीं रहीं हैं चुपके चुपके बदलियाँ
सूर्य को ढकना कभी मुमकिन हुआ क्या दफअतन ?
पर ज़रा तो खोलने का वक़्त दे, ऐ वक़्त तू
फिर मेरी परवाज़ होगी और ये नीला गगन
बाज, चुहिया खा गया, चालाकियों से ,चाल से
ये भी हम क्या कह सके हैं बाज को, है बदचलन
हो कहीं मंज़र गलत तो चादरों को तान के
तू मेरी तारीफ़ में लग, मैं तेरी , दोनों मगन
शह्र में खोजा बहुत वो घर जिसे मैं घर कहूँ
बेहिसी छाई हुई केवल मिले कंक्रीट वन
सिर्फ भाटों - चारणों की लाइने हैं हर तरफ़
हर कोई है कर रहा उगते हुओं का ही स्तवन
तू ही मेरे हौसले की लाज रखना ऐ ख़ुदा
मैं सवेरे नाम ले के कर रहा हूँ आचमन
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई , आपका बहुत आभार |
आदरणीय खुर्शीद भाई , हौसला अफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया |
आदरणीय हरि वल्लभ भाई ,ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए आपका दिली शुक्रिया |
आदरणीय भाई गिरिराज जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई स्वीकारें l
पर ज़रा तो खोलने का वक़्त दे, ऐ वक़्त तू
फिर मेरी परवाज़ होगी और ये नीला गगन
बाज, चुहिया खा गया, चालाकियों से ,चाल से
ये भी हम क्या कह सके हैं बाज को, है बदचलन
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब ,एक से बढकर एक लाज़वाब अशहार हुये हैं |लासानी ग़ज़ल पर ढेरों दाद कबूल फरमाएं |सादर अभिनन्दन तथा हार्दिक बधाई |
जनाब गिरिराज भंडारी साहब बहुत नायाब ग़ज़ल हुयी है...शानदार अशआर..बधाई आपको.
आदरणीय जितेन्द्र भाई , हौसला अफजाई के लिए आपका बहुत शुक्रिया |
आदरणीय सलीम भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया
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