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ग़ज़ल --आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन ( गिरिराज भंडारी )

आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन

****************************************

२१२२     २१२२     २१२२     २१२

आदमी  में   जानवर    भी    जी  रहा  है  फ़ित्रतन

आदमी   में  आदमी  को   देखना   है  इक  चलन 

साजिशें  रचतीं   रहीं हैं   चुपके   चुपके   बदलियाँ

सूर्य को ढकना कभी मुमकिन हुआ क्या दफअतन ?

 

पर   ज़रा तो   खोलने   का वक़्त  दे, ऐ  वक़्त  तू  

फिर   मेरी   परवाज़   होगी   और ये   नीला गगन

 

बाज,   चुहिया   खा   गया, चालाकियों से ,चाल से

ये भी हम क्या  कह सके हैं बाज को, है   बदचलन 

 

हो   कहीं   मंज़र   गलत   तो   चादरों को तान के

तू   मेरी   तारीफ़   में  लग, मैं तेरी , दोनों मगन

 

शह्र   में   खोजा   बहुत   वो घर जिसे मैं घर कहूँ

बेहिसी   छाई   हुई   केवल   मिले    कंक्रीट  वन     

 

सिर्फ    भाटों - चारणों    की   लाइने  हैं  हर तरफ़   

हर  कोई  है  कर  रहा   उगते हुओं का ही  स्तवन 

तू   ही   मेरे  हौसले   की लाज   रखना  ऐ  ख़ुदा

मैं   सवेरे   नाम   ले के   कर   रहा हूँ   आचमन

************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

 

Views: 873

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 18, 2014 at 12:31am
बहुत बहुत शुक्रिया , आदरणीया सीमा हरि जी |
Comment by seemahari sharma on September 17, 2014 at 5:59pm
बहुत सुंदर गजल है

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2014 at 12:52pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , आपका बहुत आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2014 at 12:51pm

आदरणीय खुर्शीद भाई , हौसला अफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2014 at 12:51pm

आदरणीय हरि वल्लभ भाई ,ग़ज़ल की  तारीफ़ के लिए आपका दिली शुक्रिया |

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 17, 2014 at 11:22am

आदरणीय भाई गिरिराज जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है  हार्दिक बधाई  स्वीकारें l

Comment by khursheed khairadi on September 17, 2014 at 9:55am

पर   ज़रा तो   खोलने   का वक़्त  दे, ऐ  वक़्त  तू  

फिर   मेरी   परवाज़   होगी   और ये   नीला गगन

 

बाज,   चुहिया   खा   गया, चालाकियों से ,चाल से

ये भी हम क्या  कह सके हैं बाज को, है   बदचलन 

आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब ,एक से बढकर एक लाज़वाब अशहार हुये हैं |लासानी ग़ज़ल पर ढेरों दाद कबूल फरमाएं |सादर अभिनन्दन तथा हार्दिक बधाई |

Comment by harivallabh sharma on September 16, 2014 at 11:58pm

जनाब गिरिराज भंडारी साहब बहुत नायाब ग़ज़ल हुयी है...शानदार अशआर..बधाई आपको.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2014 at 10:13pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , हौसला अफजाई के लिए आपका बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2014 at 10:12pm

आदरणीय सलीम भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया

कृपया ध्यान दे...

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