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दिल हमारा तो नहीं था आशियाने के लिए
फिर कहाँ से आ गये दुख घर बसाने के लिए
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हम ने सोचा था कि होंगी महफिलों में रंगतें
पर मिली वो ही उदासी जी दुखाने के लिए
***
था सुना हमने बुजुर्गो से कि कातिल नफरतें
प्यार भी जरिया बना पर खूँ बहाने के लिए
***
जब सभल जाएगा तुझको पीर देगा अनगिनत
हो रहा बेचैन तू भी किस जमाने के लिए
***
जब बहाने थे नये तो दिल को भी उम्मीद थी
है बहाना शेष ही क्या अब बुलाने के लिए
***
व्यर्थ है रोना, जुदाई भाग्य में जब है लिखी
इक मिलन की रात तो है हँस बिताने के लिए
***
( रचना 12 सितम्बर 2014 )
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
गजल
Comment
nice gazal badhai
अति सुन्दर। हार्दिक बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी।
व्यर्थ है रोना, जुदाई भाग्य में जब है लिखी
इक मिलन की रात तो है हँस बिताने के लिए
आदरणीय लक्ष्मण सा. सुन्दर रचना के लिए बधाई ,हार्दिक अभिनन्दन
था सुना हमने बुजुर्गो से कि कातिल नफरतें
प्यार भी जरिया बना पर खूँ बहाने के लिए ------ बहुत सुन्दर , आदरणीय लक्ष्मण भाई , बधाई स्वीकार करें |
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