ये गाथा मजदूर की, जिसके नाना रूप।
पत्थर तोड़े हाथ से, बारिश हो या धूप।।
कड़ी धूप में पिस रही, रोटी की ले आस।
पानी की दो घूँट से, बुझा रही है प्यास।।
सर पर ईंटें पीठ पर, लादे अपना लाल।
मानवता कुछ ढूँढती, लेकर कई सवाल।।
वे भी जन इस देश के, करते हैं निर्माण।
पर खुद जीने के लिये, झोंके अपने प्राण।।
उनको हो सबकी तरह, जीने का अधिकार।
उनके कर्मठ हाथ हैं, विकास का आधार
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया महिमा जी आपका तहेदिल से शुक्रिया रचना की सराहना के लिये
बहुत ही प्रवाहमय दोहे .शिज्जू जी हार्दिक बधाई प्रेषित है ..
आदरणीय हरिवल्लभ सर रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय जितेन्द्र भाई आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गोपाल नारायण सर आपका हार्दिक आभार स्नेह यूँ ही बनाये रखें
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी आपका हार्दिक आभार विलंब से आने के लिये माफी चाहता हूँ
अति सुन्दर दोहे आदरणीय...श्रमिक व्यथा सोचने पर मजबूर करती है...सुन्दर भाव सम्प्रेषण हेतु बधाई आपको जनाब शिज्जू शकूर साहब.
सटीक सुंदर दोहावली आदरणीय शिज्जू जी. बधाई आपको
शिज्जू जी बहुत अच्छे दोहे कहें आपने .विकास का अधिकार में लय कुछ बाधित है यह उन्नति का आधार भी हो सकता है . सादर .
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