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चार माह की

तपती धरा पर

जैसे ही बारिश की बूँदे बरसी

बो दिये , नन्हे-नन्हे अंकुरों को

कई कतारों में

सभी ने मिलकर

नन्हें -नन्हे  से हाथो को

ऊँचा उठाकर

दूर कर दी , मिट्टी की चादर  

धीरे से झाँक ने लगे

इस सुंदर सी दुनिया को

दो से चार और फिर छै:

धीरे-धीरे पत्तियां बढ़ने लगी

ढांकने लगी

अपनी ही छाँव से,

नाजुक जड़ों को

धूप में भी बनाये रखी

अपने-अपने हिस्से की नमी

अपनी  एकता की दीवार से

तेज बारिश के, बहते हुए पानी में

रोके रहे एक-दूसरे  को

बचाये  रखा, अपने अस्तित्व को

छोटे-बड़े संघर्षो से गुजरकर

आ गये भर जवानी पर

संयम बनाए रखा

सभी ने मिलकर ढांके रखा

अपने फूलों को, फिर फल को

धीरे से सावन-भादों बिताया

अब  अश्विन की तेज धूप में

सभी ने मिलकर

पीली  सी चादर ओढ़ ली

खुश है बहुत, अपना सब कुछ

न्यौछावर करने को

मिटा देंगे, अपने पूरे उसी अस्तित्व को

जिसे अपने ही दम पर

बचाये  रखा  

देना चाहते हैं, कुछ मुझे

कुछ तुम्हें

और कुछ कहते है

रखलो, हमें संजो कर

हम फिर...!

संघर्ष करेंगे.

      जितेन्द्र 'गीत'

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by Dr. Vijai Shanker on October 1, 2014 at 12:26am
सभी ने मिलकर
नन्हें -नन्हे से हाथो को
ऊँचा उठाकर
दूर कर दी , मिट्टी की चादर
धीरे से झाँक ने लगे
इस सुंदर सी दुनिया को
बहुत सुन्दर प्रस्तुति , बधाई प्रिय जीतेन्द्र जी ,
Comment by MAHIMA SHREE on September 30, 2014 at 4:55pm

बहुत ही सुंदर ...हार्दिक बधाई आपको 

Comment by harivallabh sharma on September 30, 2014 at 12:08pm

एक सम्पूर्ण चक्र...को आपने अपने भावों में पिरोया है...धरती की मिटती तपन....बीजारोपण से यह मानवीय उत्साह कहाँ थमता है जब तक पकती फसल उसके सम्मुख न आ जाये..कृषक लगातार बैचैन रहा इन दिनों...

अब  अश्विन की तेज धूप में

सभी ने मिलकर

पीली  सी चादर ओढ़ ली

खुश है बहुत, अपना सब कुछ

न्यौछावर करने को....अति सुन्दर चित्रण किया आपने बहुत बधाई आदरणीय जितेन्द्र "गीत" जी.

Comment by Pawan Kumar on September 30, 2014 at 11:58am

संघर्ष, एकता और समर्पण की सुन्दर झलक, बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
आदरणीय भईया जितेन्द्र जी इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई!

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