किसी की सरफ़रोशी चीखती है
वतन की आज मिट्टी चीखती है
हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीखती है
हुकूमत कब तलक ग़ाफिल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीखती है
भुला पाती नहीं लख्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीखती है
बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आंगन में तितली चीखती है
गरीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीखती है
महज़ अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीखती है
मियाँ, मुश्किल बहुत है शायरी ये
ग़ज़ल कहने पे बीवी चीखती है
जिसे तू ढूँढने निकला है 'परिमल'
तेरे सीने में बैठी चीखती है
© समीर परिमल
Comment
एक एक अशआर कमाल का हुआ है, हर एक अशआर ने दिल को छुआ है, वाह आदरणीय समीर भाई जी ... ढेरो दाद कुबूल करें .... एक दिन सार्थक हुआ, इस कमाल को पढ़कर. ह्रदय से बधाइयाँ प्रेषित है. स्वीकार करें...
बहुत सुन्दर ..गज़ल की बारीकियाँ मैं नहीं जानती , पढ़ कर आनंद आ गया ..बेहद उम्दा ..हार्दिक बधाई आप को
एक एक शेअर सीधे दिल में उतरने वाला हुआ है आ० समीर परिमल जी, अभिनन्दन एवं बधाई स्वीकार करें।
एक-एक शेरशोला, एक-एक शेर गुहर !
इस सुगढ़ ग़ज़ल के लिए बार-बार दाद, आदरणीय समीर परिमलजी.
बहुत खुबसुरत
हुकूमत कब तलक ग़ाफिल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीखती है
बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आंगन में तितली चीखती है
बहुत खूब आदरणीय समीर जी
सुन्दर ग़ज़ल लिखी है समीर जी ,
भुला पाती नहीं लख्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीखती है-----हृदय स्पर्शी शेर बहुत खूब
बधाई आपको
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