सिसकियों से सींची
टूटी ज़िन्दगी बार-बार जीने के बाद
पंख कटे रक्ताक्त पंछी-सी मैं
भूल चुकी हूँ
क्या होती है नि:सीम मैदानों में
सुखद उड़ान
इतने बड़े-बड़े दर्द ...
समस्याएँ समस्याएँ नहीं रहीं
या, सुन्न हो गई है मेरे लिए
उनकी पहचान?
आसमानी बिजली की गरजन ...
भीतर के शोर से रहूँ निर्बन्ध
या, ज्वालाओं-से बढ़ते बाहर के शोर को
मजबूर, निरन्तर प्रतिपल आने दूँ अंदर?
टूट गए गुमसुम संकल्प सारे
या, संकल्पों से टकराती, अकुलाती
पराजित, टूट गई मैं
टूटा पहले कौन ?
बाँये हाथ को सहारा
था दाहिने हाथ का
कट गए हों हाथ
तो किसका सहारा कौन ?
मेरे हाथ तुम्हारे कंधे पर कभी
तुम्हें अच्छे लगते थे न ?
अब ... ?
अधसूखे घाव
अनबनी-अधबनी ज़िन्दगी की टोकरी
मेरे पास न तुम्हारा कंधा है
न रही तुम्हारे पास
मेरी पराई हुई बाहें
मेरे दीप्तिमान रत्न
लोट-लौट आते हैं सदा के ही प्रश्न
कैसे खोलूँ मैं ज़िन्दगी के किवाड़
बंद है, और तंग है, दरवाज़े के पीछे
बंद कमरे की घुटन
.
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना को समय देने के लिए, उसकी सराहना के लिए, और उस पर अपने विचार देने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार।
मनोमालिन्य के वेग में आया अतिरेक ही सान्द्र व्यथा के तीव्र घूर्णन का कारण होता है, आदरणीय विजय निकोर जी. एकाकी व्यथा शाब्दिक हुई है.
आपकी रचनओं से निस्सृत पीड़ा ’परवेसिव’ हुआ चाहती है. यही उसका हेतु है, यही उसकी प्राप्ति है. इस तौर पर, आदरणीय, रचना वस्तुतः सफल है. आपके इस संप्रेषण के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ.
सादर
टूट गए गुमसुम संकल्प सारे
या, संकल्पों से टकराती, अकुलाती
पराजित, टूट गई मैं
टूटा पहले कौन ?
बाँये हाथ को सहारा
था दाहिने हाथ का
कट गए हों हाथ
तो किसका सहारा कौन ?
मेरे हाथ तुम्हारे कंधे पर कभी
तुम्हें अच्छे लगते थे न ?
अब ... ?
हर बार की तरह ये रचना भी दिल में टीस उठाने के लिए काफी है न जाने इतना दर्द कहाँ से आता है आपकी रचनाओं में जो पाठकों को भी सोचने को मजबूर कर देता है .......यही सोच रही हूँ .......
अधसूखे घाव ......हाँ यहीं तो हैं ....वक़्त की पपड़ी पड़ जाती है जिन पर ....पर वो घाव हरे ही रहते है जो अक्सर यादों की छोटी सी भी छीलन से रिसने लगते है ....सर हर बार की तरह निशब्द हूँ ....उदास हो गयी हूँ और कुछ याद आ गया
आपकी लेखनी को नमन .....नमन ......नमन ......
निकोर जी
पुनः एक दर्दीली प्रस्तुति i शुरू से लेकर अंत तक रचना में कसाव है i समझ में नहीं आता कौन सा उद्धरण सराहूँ i अंत में सार पर ही आता हूँ -
मेरे दीप्तिमान रत्न
लोट-लौट आते हैं सदा के ही प्रश्न
कैसे खोलूँ मैं ज़िन्दगी के किवाड़
बंद है, और तंग है, दरवाज़े के पीछे
बंद कमरे की घुटन-----------------------------------अदभुत !
वाह...बहुत संवेदनशील अभिव्यक्ति... आपको तहे दिल बधाई , सादर
|
आपकी रचना बिलकुल अधसूखे घाव की तरह है, मन को झंझोड़ रही है. नमन आपकी लेखनी को आदरणीय विजय जी
आदरणीय विजय निकोर जी ,कुछ क्लिष्ट मगर सुन्दर रचना है। बहुत बहुत बधाई ।
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