जागा श्रमिक अभाव की चादर पीछे कर
चला अपने भाग्य से लड़ने डट कर
रेशमी विस्तर में सोने वालों,
तुमने कभी सुबह उठ कर देखा है ।
साहस की ईंटों को चुनता हैं अरमानों के गारे से
फिर भी खुशी चलती है दीवार पर, उसके आगे
संगमरमर के महलों में सुख से रहने वालों,
तुमने उनके भूखे पेटों को कभी देखा है ।
तारों की छांव में रोज सबसे आगे उठता
फिर भी जीवन की अरूढ़ाई ना देख पाता
तरुणाई श्रमिकों की पीने वालों,
इनके सिकुड़े चेहरों को कभी देखा है ।
विमारों को छोड़ अंधेरे घर में जाते
आटा दाल जुटा के जर-जर वो आते
उम्मीदों से ज्यादा, अपनों को देने वालों,
उनको, उनकी मेहनत भर दे कर देखा है।
कभी तो करुणा मन में धारण कर लो
विपदाओं से धुंधले चेहरों का तम हर लो
नहीं सताओ उनको, वो भी हरि के जन हैं,
उनके जीवन का आशय उनसे मत छीनों ।
अप्रकाशित व मौलिक
कल्पना मिश्रा बाजपेई
Comment
आदरनीया कल्पना जी , बहुत सुन्दर संदेश देती और सार्थक प्रश्न उठाती रचना प्रस्तुति के लिये आपको बधाई ।
बहुत सशक्त भावाभिव्यक्ति। बधाई, आदरणीया कल्पना जी।
सुंदर विषय पर सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई ,आदरनीय
आदरनीया कल्पना जी , बहुत सुन्दर संदेश देती आपकी रचना के लिये आपको बधाई ।
सार्थक प्रश्न उठाती रचना प्रस्तुति. बधाई आदरणीया कल्पना दीदी
आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर आभार /सादर
कल्पना जी आपने बहुत मौजूं प्रश्न उकेरे i इस अच्छी रचना के लिए आपको बधाई i
आ० Shyam Narain Verma सर बहुत-बहुत आभार /सादर
आ० narendrasinh chauhan जी बहुत शुक्रिया /सादर
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... सादर बधाई |
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