"हेलो, हाँ डॉक्टर साहब ! नमस्कार, बिटिया की शादी का निमंत्रण कार्ड भिजवा दिया है, भाभी जी और बच्चो को लेकर अवश्य आइयेगा"
"जी भाई साहब, नमस्कार, कार्ड मिल गया है, श्रीमती जी बच्चो के साथ जायेंगी, मैं न आ सकूँगा, आपको तो पता ही है शहर में डायरिया फैला हुआ है"
"हां, वो तो है, पर आपकी भगिनी की शादी है, कमसे कम दो दिन का भी समय निकालिये"
"माफ़ी चाहूंगा भाई साहब, सीजन चल रहा है यही तो दो पैसे कमाने के दिन हैं"
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => लघुकथा : रुतबा
Comment
आदरणीय बागी जी
डाक्टर साहेब के पास 'भगिनी ' की शादी में भी जाना आर्थिक लाभ की सम्भावना के कारण संभव नहीं ! अर्थ के दानव ने मानव को बिलकुल ही संवेदनशुन्य कर दिया है i ऐसे मानव से तो पशु अच्छे है i संवादों के बीच छिपा व्यंगार्थ उभर कर आया है i आपको बहुत= बहुत बधाई i सादर i
अब रिश्ते नाते से भी ऊपर व्यवसाय हो गया है और जिनके पेशे में सेवा भाव निहित है वह रिश्तों से अधिक कमाई को ही
तरजीह दे रहे है, ऐसी मानसिकता पर गहरा तंज कसने में सफल रही लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई आ. श्री गणेशजी "बागी" जी
आदरनीय बागी जी , डाक्टर, जिन्हे हम ईश्वर का इंसानी रूप मानते हैं , आज उनकी मानसिकता कहाँ तक गिर चुकी है बड़ी खूब्सूरती से आपने लघुकथा मे बयान किया है ! हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।
आदरणीया वंदना जी, आपकी प्रोत्साहित करती टिप्पणी मेरे लिए महत्वपूर्ण है, हृदय से आभार आपका।
अति सुन्दर लघु कथा। बधाई। |
आदरणीय जीतेन्द्र जी, आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है, बहुत बहुत आभार।
आदरणीया राजेश कुमारी जी, लघुकथा पर आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धक है, सादर आभार।
मानसिक रूप से हम कितने दिवालिया होते जा रहे हैं ...आपकी कथाओं में हमेशा यह बिंदु बहुत सटीक तरीके से व्यक्त किया जाता है इसके लिए आपको बहुत २ बधाई आदरणीय गणेश जी
बहन की शादी में न जाना, लोगो की सेवा भी हो सकता था. किन्तु आज के समय में दो पैसे ज्यादा महत्व रखते है. बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय बागी जी, आपकी लघुकथाओं का शीर्षक ही पूर्ण सार कह देता है. आपको बहुत-बहुत बधाई ,सर
आदरणीय जवाहर लाल जी, सदैव की भाति प्रोत्साहित करती आपकी टिप्पणी हेतु हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ, स्नेह यूँ ही बना रहे, सादर।
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