सडक के दांयी ओर पूजा जनरल स्टोर था और बांयी ओरगुप्ता प्रोवीजन स्टोर था।दोनो दुकाने आमने सामने थी। पूजा जनरल स्टोर गोरी चिट्टी नखरीली अदाओं से लबरेज लगभग बीस पच्चीस बर्ष की पूजा खुद सम्भालती थी। बांये अंग से बेकार पक्षाघात से पीडित गुप्ता जी अपनी दस बर्षीय बेटी तनु के साथ गुप्ता प्रोविजन स्टोर सम्भालते थे। जहाँ गुप्ता जी की दुकान में इक्का दुक्का ग्राहक आते बहीं पूजा को ग्रहको के चलते सांस लेने की फुर्सत नही मिलती। तनु ने इस बात को लेकर कितनी ही बार अपने पापा से शिकायत की लेकिन गुप्ता जी वही घिसा-पिटा जबाव देते ; " जितना किस्मत में होगा उतना ही तो मिलेगा।"
तनु इस जबाव को कभी आत्मसात् नहीं कर पाती । धीरे धीरे वह सामने वाली पूजा की नकल करने लगी । वह उसी के समान दुकान सजाती । सुबह शाम पूजा करती । ग्राहकों से भी बड़ी तमीज़ से बात करती। लेकिन ग्राहक फिर भी नहीं आता । परेशान तनु ने ठान लिया कि आज वह पूजा से दुकान अच्छी चलने का राज जान कर ही रहेगी ।
जेठ दोपहर ग्राहको की आवक कुछ कम थी । अच्छा मौका जान तनु पूजा के पास पहुँची और बोली ; " दीदी एक बात बताओ तुम्हारी दुकान की तरह हमारी दुकान क्यों नही चलती ?"
पूजा ने तनु को ऊपर से नीचे तक भेदक दृष्टि से देखा , परखा, फिर एक आँख दबा कर हँस पडी और बोली ; "बस चार पाँच साल रुक जा तेरी दुकान भी चलेगी।"
डाॅ संध्या तिवारी
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सुन्दर लघुकथा है आ० डॉ संध्या तिवारी जी, बधाई स्वीकारें। वैसे लघुकथा में अभी भी संपादन की काफी गुंजायश है।
आदरणीया डॉ संध्या तिवारी जी, बहुत ही ससक्त लघुकथा प्रस्तुत हुई है, आज के समय में ऐसी दुकानदारी खूब चलती है, बड़ी बारीकी से तथ्यों को उभार दिया गया है, बहुत बहुत बधाई आदरणीया।
ऐसी दुकाने चलती है पर कुछ वर्षों के बाद बंद भी हो जाती हैं.खैर आजकल वर्तमान से मतलब है भविष्य का क्या..? अच्छी लघुकथा आदरणीया डा.संध्या जी, हार्दिक बधाई आपको
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