आ चल बुने राष्ट्रीय स्वेटर
सहिष्णुता की ऊन का गोला
सलाइयाँ सद्व्यवहार की
रंग रंग के डालें बूटे
मनुसाई कतारें प्यार की
करें बुनाई सब मिलजुल कर
आ चल बुने राष्ट्रीय स्वेटर
अब सर्दी का लगा महीना
देश मेरा ये थर-थर काँपे
एक-एक मिल भरें उष्णता
शाल बना कांधों पर ढापें
धूप-धूप गूँथे प्रभाकर
आ चल बुने राष्ट्रीय स्वेटर
हिंदू मुस्लिम सिक्ख इसाई
साथ-साथ मिल करें सिलाई
अनुशासन का मिश्रित धागा
लोकतंत्र की करें कढाई
ऐसे बने विचक्षण बुनकर
आ चल बुने राष्ट्रीय स्वेटर
ग्रंथि पड़े तो मिलकर खोलें
हो अस्वच्छ तो मिलकर धोलें
ज्ञान समृद्धि के फंदों में
स्वच्छता के अंकुर बोलें
स्वास्थ्य तभी बनेगा बेहतर
आ चल बुनें राष्ट्रीय स्वेटर
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(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० डॉ० विजय शंकर जी,रचना पर आपका अनुमोदन पाकर हर्षित हूँ दिल से बहुत -बहुत आभार आपका.
वाहहहहह वाहहहहहह
आदरनीया राजेश जी , ठंड की शुरुवात मे गर्म राष्ट्रीय स्वेटर - नवगीत के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
वाह आपकी कल्पनाशीलता और रचनाधर्मिता तारीफ़ के योग्य हैं, इस सुन्दर नवगीत पर लख लख बधाईयां जी।
महनीया प्रणाम !
र्राष्ट्रीय स्वेटर बुनने की कल्पना ही अद्भुत है i जिसे राष्ट्र की इतनी चिंता हो वह स्तुत्य है I पर स्वेटर की चिंता तो माँ ही करती है i सादर i
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