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लोग हुनरमंद कितने किसी को गुमाँ तक नहीं होता
आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं होता
जह्र फैलाते हुए उम्र गुजरी भले बाद में उनकी
मैय्यत उठाने कोई यारों का कारवाँ तक नहीं होता
आज यहाँ की बदल गई आबो हवा देखिये कितनी
वृद्ध की माफ़िक झुका वो शजर जो जवाँ तक नहीं होता
मूक हैं लाचार हैं जानवर हैं यही जिंदगी इनकी
ढो रहे हैं बोझ पर दर्द इनका बयाँ तक नहीं होता
ख़्वाब सजाते सदा आसमां पर महल वो बनायेंगे
दिल की जमीं पर मुहब्बत भरा आशियाँ तक नहीं होता
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(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
हरि प्रकाश जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सफल हुआ आपका हार्दिक आभार
मिथिलेश जी,तहे दिल से शुक्रिया.
सोमेश भैया ,आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ ग़ज़ल के अनुमोदन के लिए दिल से आभार आपका.
वाह वाह आदरणीया राजेश कुमारी जी ज़ोरदार ग़ज़ल//हार्दिक बधाई आपको
लोग हुनरमंद कितने किसी को गुमाँ तक नहीं होता
आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं होता.........
बहुत ही शानदार ग़ज़ल आपको हार्दिक बधाई !
लोग हुनरमंद कितने किसी को गुमाँ तक नहीं होता
आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं होता
फलों से लदे वृक्ष झुकते हैं एवं ज्ञानी कभी अभिमानी नहीं होते ,सुंदर गज़ल पर इस शे'र ने बहुत प्रभावित किया |बधाई !
आ० श्याम नारायण वर्मा जी ,तहे दिल से आभार आपका.
बहुत खूब ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गजल पर आपको दिल से बधाई |
आ० डॉ० विजय शंकर जी इस उत्साह वर्धन के लिए तहे दिल से आभार आपका|
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