१२२२ १२२२ १२२२
अकेले पन को कर ले तू , ठिकाना अब
क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब
समय बदला तो वो बदले , नज़र बदली
चलो कर लें निकलने का बहाना अब
वही आंसू , वही आहें , वही ग़म है
कहीं पे ख़त्म हो जाये फ़साना अब
झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है
कहेगा क्या जो जानेगा ज़माना अब
सुनो तितली , सुने पंछी बहारें भी
मेरे उजड़े हुये घर में , न आना अब
कबूतर बच के गुम्बद से कहाँ जाएँ
कहाँ ढूंढें, कहाँ कर लें ठिकाना अब
वही ज्ज़्बा, वही बातें , वही दिल है
मगर चेह्रा लगा मुझको पुराना अब
नक़ाब उलटा अयाँ सच की हुई शक़्लें
करोगे क्या बताओ तो बहाना अब
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मौलिक अवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
शानदार मतला ...बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० गिरिराज जी ,
सुनो तितली , सुने पंछी बहारें भी
मेरे उजड़े हुये घर में , न आना अब-----क्या कहने वाह
हार्दिक बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर
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