वह चालीस वर्ष का हट्टा –कट्टा जवान था I बस में मेरी खिड़की के करीब आया I डबडबायी आँखों से मेरी ओर देखा –‘बाबू जी मेरी माँ अस्पताल में दम तोड़ रही है, उसकी दवा लेने गया था, फकत इक्कीस रुपये कम पड़ गए है I बाबू जी आप मेहरबानी कर दे तो मेरा माँ शायद बच जाय I अल्लाह आपको नेमते देगा I’
उसकी आँखों से आंसू छलक पड़े I मुझे तरस आ गया I मैंने उसे रुपये दे दिए I वह दुआ देता आँखों से ओझल हो गया I
किसी कारण से मेरी बस वही रुकी रही I इतने में दूसरी बस आ गई I मैंने देखा वही व्यक्ति फिर हठात प्रकट हुआ i उसकी आँखे फिर डबडबाई I वह दूसरी बस के एक मुसाफिर को संबोधित कर बोला- बाबू जी मेरी माँ अस्पताल में दम तोड़ रही है------
(मौलिक /अप्रकाशित)
Comment
अर्चना तिवारी जी
सादर आभार i
ऐसी बहुत सी जगह होती हैं जहाँ इंसान सहानुभूति के माध्यम से अपनी मक्कारी सिद्ध कर ही जाते हैं. बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी, सर . बधाई स्वीकारें
भावुक होना मनुष्य की कमजोरी है..वहीँ नाटकीयता उसके औजार हैं..किस जरूरतमंद को हम हाथ खींच लेंगे, अब कठिन हो गया...सुन्दर यथार्थ परक लघुकथा हेतु बधाई आदरणीय.
ये झूठा सच हर सड़क ,हर बस ,हर मन्दिर पे दिख जाएगा ,मगरमच्छ असली सम्वेदनाओं को निगल रहे हैं |सुंदर विषय उठाया आप ने आ.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, एकदम सत्य, बाकी आपका लेखन लाजवाब है ,हार्दिक बधाई !
अति सुन्दर लघु कथा। बधाई। |
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