विभु से मांगो मित्र तुम, अब ऐसा वरदान
नये वर्ष में शांत हो, मानव का शैतान
हो न धरा अब लाल फिर, महके मनस प्रसून
किसी अबोध अजान का, नाहक बहे न खून
सबके जीवन में खुशी, छा जाए भरपूर
अच्छे दिन ज्यादा नहीं, भारत से अब दूर
कवि गाओ वह गीत अब, जिससे सदा विकास
तन में हो उत्साह प्रिय, मन में हो उल्लास
आपस में सद्भाव हो, सभी बने मन-मीत
ओज भरे स्वर में कवे, महकाओ कुछ गीत
ऐसा जिससे नग हिले, विचले पारावार
भरे देश हुंकार जब, बरसे धाराधार
पावन हो सबका ह्रदय, सुरभित हो संसार
स्वाति बूँद से हो प्रकट, गजमुक्ता, घनसार
स्वागत है नव्-वर्ष का, जिसमे नव उत्कर्ष
विकसित सबका हिय-कमल जगमग भारतवर्ष
भारत में ही भारती, सबको बांटे ज्ञान
नए वर्ष में हो नया, उनका भी अभियान
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आ० शिज्जू भाई
आपका हार्दिक आभार i
विभु से मांगो मित्र तुम, अब ऐसा वरदान
नये वर्ष में शांत हो, मानव का शैतान
हो न धरा अब लाल फिर, महके मनस प्रसून
किसी अबोध अजान का, नाहक बहे न खून
वाह आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी वाह .... वर्तमान के सन्दर्भ में रचे ये दोहे बहुत ही खूबसूरत और सार्थक बन पड़े हैं। इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सर।
सुंदर दोहे रचे है नव वर्ष के आगमन से पूर्व, हार्दिक बधाई आद गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
सुंदर दोहे कर रहे, स्वागत हे नव वर्ष
अच्छे दिन आये तभी, जीवन में उत्कर्ष | - लक्ष्मण
पावन हो सबका ह्रदय, सुरभित हो संसार
स्वाति बूँद से हो प्रकट, गजमुक्ता, घनसार
स्वागत है नव्-वर्ष का, जिसमे नव उत्कर्ष
विकसित सबका हिय-कमल जगमग भारतवर्ष
आदरणीय गोपालनारायण साहब ,सदभावनाओं से युक्त सुन्दर दोहावली है |आप जैसे विद्जन की शुभकामना फलित होने से भारत वर्ष का हर वर्ष अवश्य मंगल होगा| सादर अभिनन्दन
आदरणीय बड़े भाई , आदर्श नव वर्ष की कामना के लिये सबसे पहले आमीन कहना चाहता हूँ ।
सुन्दर ,सुगठित नव वर्ष की दोहावली के लिये आपको दिल से बधाइयाँ , आदरणीय ॥
// किसी अबोध.. यहाँ 12 121 यहाँ विषम चरण की शुरूआत में भी जगण बनता सा लग रहा है //
भाई शिज्जूजी, आदरणीय गोपाल नारायनजी के उक्त दोहे में जगण शब्द या तदनुरूप विन्यास प्रवाह बाधा का कारण कत्तई नहीं बन रहा है.
ऐसे विन्यासों के कई-कई उदाहरण हैं. देखिये-
१. बिना वि+चारे जो करे, सो पाछे पछताय
२. बड़ा हु+आ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.. आदि
उपरोक्त कालजयी दोहों में विषम चरण के प्रारम्भ में ही जगण (जभान, ।ऽ।, १२१, लघु-गुरु-लघु) सदृश विन्यास बनता हुआ भी वाचन-प्रवाह बाधित क्यों नहीं है ?
यहीं मात्रिक छन्दों में मात्र मात्रिकता को साधने से काम नहीं चलता. बल्कि शब्दकलों को साधने के आवश्यकता बनती है. इसी तथ्य पर आदरणीय गोपाल नारायनजी से मेरी महीनों से चर्चा चल रही थी. हार्दिक संतोष है कि आदरणीय ने उन विन्दुओं को हृदयंगम कर लिया है.
अब उक्त चरण को देखें -
किसी अबोध अजान का ..
किसी (त्रिकल) अबो (त्रिकल) - यहाँ दो त्रिकल मिलकर षटकल बन रहे हैं.
ध अजा (चौकल) - सहज है. कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है.
न का - दोहे के विषम चरण का समापन है जो अजान शब्द के जा के संयोग से रगण (राजभा, ऽ।ऽ, २१२, गुरु-लघु-गुरु) का सार्थक निर्माण कर रहा है.
यही कारण है, कि उक्त चरण में प्रवाह नहीं रुक रहा.
जगण (जभान, ।ऽ।, १२१, लघु-गुरु-लघु) वस्तुतः मात्र शब्द से ही नहीं बनते. बल्कि वे शब्दकलों के अनगढ़पन की देन हैं. वे वाचन का प्रवाह ही रोक देते हैं, इसी कारण दोहे के विषम चरण के प्रारम्भ में जगणात्मक विन्यास का निषेध है.
विश्वास है, तथ्य स्पष्ट हो पाया.
शुभेच्छाएँ
नव-वर्ष के दोहे हैं नव-वर्ष के प्राण
कवि-कल्पना सच बने हो देश-निर्माण
सुंदर दोहे मान्यवर
सुगढ़ छन्द गोपाल के, इंगित है उत्कर्ष !
आशाएँ भरपूर हैं, पूर्ण करे नववर्ष !!
ऊर्जा से भरे, सतत उत्साहित करते इन दोहों के लिए हृदय से शुभकामनाएँ, आदरणीय गोपाल नरायनजी.
नववर्ष मंग्लमय हो !
आदरणीय कवे का अर्थ मुझे स्पष्ट नहीं है. शब्दार्थ प्रस्तुति हेतु सक्षमा निवेदन.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर बेहद प्रभावशाली दोहे हैं वाकई आनन्द आ गया बहुत बहुत बधाई हो।
सर एक छोटी सी शंका है //किसी अबोध// यहाँ 12 121 यहाँ विषम चरण की शुरूआत में भी जगण बनता सा लग रहा है,
क्षमा सहित
सादर
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