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जो भी पल समझा मुकम्मल।
फिर नई इक दौड़ चलती।
सूर्य समझा जो सहर का।
शाम थी लाली फिसलती।
बहुत खूब आदरणीया सीमा जी
बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बधाई
आदरणीया सीमा हरि जी , क्षमा कीजियेगा , गलती मुझसे ही हुई है , आपकी गज़ल सही है ,
पुनः क्षमा मांगते हुये गज़ल के लिये आपको बहुत बहुत बधाई प्रेषित कर रहा हूँ , स्वीकार करें ।
रात से लड़ता है दीपक।
आस सुबहा की मचलती
आदरणीया सीमा जी खूबसूरत ग़ज़ल हुई है ,सादर अभिनन्दन |
आदरणीया सीमा हरि जी , गज़ल बहुत खूबसूरत हुई है , हार्दिक बधाइयाँ । लेकिन शे र के मिसरे एक ही बहर मे नही लग रहे हैं । कहीं 2122 2212 मात्रा क्रम है तो कहीं 2122 2122 कहीं और ही कुछ । किसी एक बहर में मिसरे सध जायें तो बढिया गज़ल होगी ।
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