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ग़ज़ल----उमेश कटारा ---बिचाराधीन है मेरा मुकदमा भी अदालत में

फँसा इन्साफ है मेरा गुनाहों की सियासत में 
विचाराधीन है मेरा मुकदमा भी अदालत में
-----
लिये हथियार हाथों में,चली थी मज़हबी आँधी
ज़ला परिवार था मेरा , कभी शहरे क़यामत में
-----
अख़रता है सियासत को ,मेरा इन्सान हो जाना 
हुआ बरबाद था मैं भी, क़भी सच की वक़ालत में
-----
कहीं मन्दिर कोई तोड़ा ,कहीं मस्ज़िद कोई तोड़ी
फँसा है आदमी देखो,न जाने किस इबादत में
-----
दरिन्दे आज बाहर हैं,मेरी तारीख पड़ती है
खडे मी-लॉर्ड हैं देखो ,गुनाहों की हिमायत में

उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित


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Comment

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Comment by ram shiromani pathak on December 27, 2014 at 9:33am
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय
Comment by vandana on December 27, 2014 at 6:12am

अच्छी कहन के साथ बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय उमेश जी लेकिन आप कुछ सुझावों को लेकर जो परेशान हो रहे हैं वे वास्तव में सही हैं ब्रज भाषा के प्रभाव में व को ब लिखना हिंदी या उर्दू के हिसाब से सही नहीं माना जायेगा जैसा कि आदरणीय मिथिलेश जी और आदरणीय वीनस जी ने इंगित किया है सादर निवेदित

आशा है मेरी बात को आप अन्यथा न लेंगे 

Comment by वीनस केसरी on December 26, 2014 at 9:06am
कृपया ये भी बताएं

बकालत और वक़ालत मेंक्या सही है
Comment by वीनस केसरी on December 26, 2014 at 9:02am
आदरणीय मैं संशय में हूँ कि मुक़द्दमा विचाराधीन होता है अथवा बिचाराधीन

बता सकें तो मेहरबानी होगी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 26, 2014 at 8:44am

आदरणीय उमेश कटारा जी आपकी ग़ज़ल मुसलसल बेहतर होती जा रही बेहतरीन कहन के साथ रदीफ काफिया खूब निभाया आपने। हालाँकि इससे पहले मैंने आपकी रचनाओं पे टिप्पणी शायद नहीं किया है लेकिन आपकी रचनाएं मैं पढ़ता ज़रूर हूँ। इस रचना के लिये दिली दाद कुबूल फरमायें शेष मिथिलेश जी एवं गिरिराज जी ने कह ही दिया है।

Comment by umesh katara on December 26, 2014 at 8:41am

somesh kumar जी आपने अपने पाण्डित्य का परिचय दिये बिना ही कह दिया 
नियमों और सुधार के अनुसार लिखें
नियम और सुधारों के बारे में बताया नहीं 

Comment by umesh katara on December 26, 2014 at 8:37am

कुल मिलाकर Anurag Prateek जी मेरी ग़ज़ल कोई ग़ज़ल नहीं है 
इसके हर शेर में बिरोधाभास और कमजोरी है 
मैं आपकी बिलक्षण प्रतिभा को नमन करता हूँ 
और आपके जज्बे को सलाम करता हूँ
------------------------------------------------------बाकी आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि न तो ग़ज़ल में काल सर्प  दोष है , न ग़ज़ल में कोई अन्य त्रुटि है मिथिलेश जी ने भी लिखा है ,,,,बिचराधीन को बिचाराधीन करदो.....अरे श्रीमन वह पहले से ही मैंने बिचाराधीन लिखा है .....आप अच्छे से पढ़ो तो सही 

Comment by somesh kumar on December 25, 2014 at 11:10pm

दरिन्दे आज बाहर हैं,मेरी तारीख पड़ती है
खडे मी-लॉर्ड हैं देखो ,गुनाहों की हिमायत में

सच, आज खुद कटघरे में है भाई जी |सुंदर रचना ,बाकी नियमों और सुधार के अनुसार लिखें ,कोशिश के लिए बधाई 

Comment by Anurag Prateek on December 25, 2014 at 8:58pm

फँसा इन्साफ है मेरा गुनाहों की सियासत में ---कहन कमजोर है,लगता है कि  इन्साफ आपने किया  है जो गुनाहों की                                                               सियासत में फंस गया है और आपका भी मुकदमा अदालत में विचाराधीन है 
बिचाराधीन है मेरा मुकदमा भी अदालत में
-----
लिये हथियार हाथों में,चली थी मज़हबी आँधी- दोनों पंक्तियों में रब्त नहीं है. 
ज़ला परिवार था मेरा , कभी शहरे क़यामत में-- ,'कभी' की वजह से लग रहा है आपकी घटना अलग है 
-----
अख़रता है सियासत को ,मेरा इन्सान हो जाना -  दोनों पंक्तियों में रब्त नहीं है. काल भंग   
हुआ बरबाद था मैं भी, क़भी सच की बक़ालत में
-----
कहीं मन्दिर कोई तोड़ा ,कहीं मस्ज़िद कोई तोड़ी-  काल भंग  
फँसा है आदमी देखो,न जाने किस इबादत में
-----
दरिन्दे आज बाहर हैं,मेरी तारीख पड़ती है
खडे मी-लॉर्ड हैं देखो ,गुनाहों की हिमायत में- गुनाह की वकालत होती है, गुनहगार की हिमायत होती है. माज़रत के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 25, 2014 at 6:31pm

आदरणीय उमेश भाई , बढिया गज़ल हुई है , हम्सभी का दर्द बयाँ किया है आपने , बधाइयाँ । आ. मिथिलेश भाई की सलाह पर ध्यान दीजियेगा ।

कृपया ध्यान दे...

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