फँसा इन्साफ है मेरा गुनाहों की सियासत में
विचाराधीन है मेरा मुकदमा भी अदालत में
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लिये हथियार हाथों में,चली थी मज़हबी आँधी
ज़ला परिवार था मेरा , कभी शहरे क़यामत में
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अख़रता है सियासत को ,मेरा इन्सान हो जाना
हुआ बरबाद था मैं भी, क़भी सच की वक़ालत में
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कहीं मन्दिर कोई तोड़ा ,कहीं मस्ज़िद कोई तोड़ी
फँसा है आदमी देखो,न जाने किस इबादत में
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दरिन्दे आज बाहर हैं,मेरी तारीख पड़ती है
खडे मी-लॉर्ड हैं देखो ,गुनाहों की हिमायत में
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अच्छी कहन के साथ बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय उमेश जी लेकिन आप कुछ सुझावों को लेकर जो परेशान हो रहे हैं वे वास्तव में सही हैं ब्रज भाषा के प्रभाव में व को ब लिखना हिंदी या उर्दू के हिसाब से सही नहीं माना जायेगा जैसा कि आदरणीय मिथिलेश जी और आदरणीय वीनस जी ने इंगित किया है सादर निवेदित
आशा है मेरी बात को आप अन्यथा न लेंगे
आदरणीय उमेश कटारा जी आपकी ग़ज़ल मुसलसल बेहतर होती जा रही बेहतरीन कहन के साथ रदीफ काफिया खूब निभाया आपने। हालाँकि इससे पहले मैंने आपकी रचनाओं पे टिप्पणी शायद नहीं किया है लेकिन आपकी रचनाएं मैं पढ़ता ज़रूर हूँ। इस रचना के लिये दिली दाद कुबूल फरमायें शेष मिथिलेश जी एवं गिरिराज जी ने कह ही दिया है।
somesh kumar जी आपने अपने पाण्डित्य का परिचय दिये बिना ही कह दिया
नियमों और सुधार के अनुसार लिखें
नियम और सुधारों के बारे में बताया नहीं
कुल मिलाकर Anurag Prateek जी मेरी ग़ज़ल कोई ग़ज़ल नहीं है
इसके हर शेर में बिरोधाभास और कमजोरी है
मैं आपकी बिलक्षण प्रतिभा को नमन करता हूँ
और आपके जज्बे को सलाम करता हूँ
------------------------------------------------------बाकी आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि न तो ग़ज़ल में काल सर्प दोष है , न ग़ज़ल में कोई अन्य त्रुटि है मिथिलेश जी ने भी लिखा है ,,,,बिचराधीन को बिचाराधीन करदो.....अरे श्रीमन वह पहले से ही मैंने बिचाराधीन लिखा है .....आप अच्छे से पढ़ो तो सही
दरिन्दे आज बाहर हैं,मेरी तारीख पड़ती है
खडे मी-लॉर्ड हैं देखो ,गुनाहों की हिमायत में
सच, आज खुद कटघरे में है भाई जी |सुंदर रचना ,बाकी नियमों और सुधार के अनुसार लिखें ,कोशिश के लिए बधाई
फँसा इन्साफ है मेरा गुनाहों की सियासत में ---कहन कमजोर है,लगता है कि इन्साफ आपने किया है जो गुनाहों की सियासत में फंस गया है और आपका भी मुकदमा अदालत में विचाराधीन है
बिचाराधीन है मेरा मुकदमा भी अदालत में
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लिये हथियार हाथों में,चली थी मज़हबी आँधी- दोनों पंक्तियों में रब्त नहीं है.
ज़ला परिवार था मेरा , कभी शहरे क़यामत में-- ,'कभी' की वजह से लग रहा है आपकी घटना अलग है
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अख़रता है सियासत को ,मेरा इन्सान हो जाना - दोनों पंक्तियों में रब्त नहीं है. काल भंग
हुआ बरबाद था मैं भी, क़भी सच की बक़ालत में
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कहीं मन्दिर कोई तोड़ा ,कहीं मस्ज़िद कोई तोड़ी- काल भंग
फँसा है आदमी देखो,न जाने किस इबादत में
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दरिन्दे आज बाहर हैं,मेरी तारीख पड़ती है
खडे मी-लॉर्ड हैं देखो ,गुनाहों की हिमायत में- गुनाह की वकालत होती है, गुनहगार की हिमायत होती है. माज़रत के साथ
आदरणीय उमेश भाई , बढिया गज़ल हुई है , हम्सभी का दर्द बयाँ किया है आपने , बधाइयाँ । आ. मिथिलेश भाई की सलाह पर ध्यान दीजियेगा ।
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