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जीवन लड़कैया से, सपनो की नैया से

तारों के पार चलें, आओं ना यार चले

 

उतनी ही प्यास रहे, जितना विश्वास रहे

मन की तरंगों से पुलकित उमंगों से 

आशा के विन्दु से जीवन विस्तार चले........

 

क्या था जो पाया था, क्या था जो खोया था

था कुछ समेटा जो सारा ही जाया तो   

खुशियों की टहनी को थोड़ा सा झार चले.......

 

डोली पे फूल झरे, दो दो कहार चले

सुन्दर सी सेज सजी, तपने को देख रही

मन की अगनिया को थोड़ा सा बार चले .........

 

पांचो का मेल यहाँ, पाँचों में मेल हुआ

मिलने को प्रीतम से दुल्हन चल दी, जैसे

नदिया से सागर तक, पानी की धार चले........

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 28, 2014 at 8:11pm

इस गीत के कैनवास यानि तथ्य-विन्यास तथा वैचारिक विस्तार पर अभिभूत हूँ.

बार-बार बधाई आदरणीय मिथिलेश भाईजी.

इस नवगीत में निर्गुन भाव की अंतर्धारा एक पाठक के तौर पर हमें रोमांचित कर रही है. खुशियों की टहनी को थोड़ा सा झार चले.. के बाद आये दोनों बन्द जीवन की निस्सारता और सांसारिक परिपाटियों को बखूबी साझा कर रहे हैं. मन की अगनिया को थोड़ा सा बार चलें   की अभिव्यक्ति में ’बारना’ सुगढ़ सोच के तहत प्रयुक्त हुए शब्द की तरह सामने आया है. इस भाव को पूरी सार्थकता दे रहा है अंतिम बन्द - पांचो का मेल यहाँ, पाँचों में मेल हुआ..

ओह ! सम्यक, भाई सम्यक !  

१२-१२ की यति पर (वैसे, इसमें कहीं-कहीं स्वतंत्रता ली गयी है) इस नवगीत को सप्रवाह पढ़ना मुग्ध कर रहा है.
आपकी संवेदनशीलता और आपकी रचनाधर्मिता के प्रति हार्दिक बधाइयाँ और अनेकानेक शुभकामनाएँ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 8:00pm

आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 

Comment by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 7:52pm

इस  सुन्दर रचना पर आपको  बहुत बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी .!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 6:54pm

आदरणीय शिज्जु भाई जी आपका अनुमोदन पाकर धन्य हुआ ... ग़ज़ल विधा से अलग नवगीत पर इस प्रयोगात्मक प्रयास को, आपकी जो सराहना मिली है, मेरे लिए बहुत उत्साह वर्धक है ... हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 6:34pm

आदरणीय मिथिलेशजी आप मुसलसल कमाल कर रहे हैं क्या खूब नवगीत रचा है आपने वाह बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 6:00pm

आदरणीय गिरिराज सर ग़ज़ल और नज्म से अलग गीतों पे भी प्रयास कर रहा हूँ, बात पुरानी है, बस अपनी तरह से कहने का प्रयास किया है,  इस प्रयास की सराहना और स्नेह के लिए बहुत बहुत आभार ... हार्दिक धन्यवाद   


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 5:57pm

आदरणीय बागी सर, आपको यह प्रयास पसंद आया, लिखना सार्थक हुआ. इस प्रयास की सराहना और स्नेह के लिए बहुत बहुत आभार ... हार्दिक धन्यवाद  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 28, 2014 at 3:47pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत बढिया बात कही है , पढ़ के बहुत अच्छा लगा । हार्दिक बधाई ॥


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 28, 2014 at 3:12pm

अंश को अंशी से मिलन का अद्भुत वर्णन इस नवगीत में हुआ है बहुत ही सुन्दर रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी .

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